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________________ ३७. दर्शन ३५३ जो जीव दोषसहित देव को देव, जीव-हिंसादि से युक्त को धर्म और परिग्रह में आसक्त गुरु को गुरु मानता है, वह मिथ्यादृष्टि है। ४. द्रव्य-परिभाषा १. सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया। भंगुप्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि एक्का ।। (पंचा० ८) सत्ता एक है। वह सब पदार्थों में स्थित है। विश्वरूप है। अनन्त पर्यायवाली है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है। प्रतिपक्ष सहित है। २. दवियदि गच्छदि ताई ताई सभावपज्ज्याइं जं। दवियं तं भण्णंते अणण्णभूदं तु सत्तादो।। (पंचा० ६) जो उन-उन अपने स्वभाव के अनुकूल पर्यायों को प्राप्त करता है, उसे द्रव्य कहते हैं। द्रव्य सत्ता से अभिन्न होता है। ३. दव्वं सल्लक्खणयं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं। गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ।। (पंचा० १०) सर्वज्ञ ने द्रव्य को सत्ता.लक्षणवाला कहा है, अथवा जो उत्पाद.व्यय.ध्रौव्य से संयुक्त है वह द्रव्य है, अथवा जो गुण और पर्यायों का आश्रय-आधार है, वह द्रव्य है। ४. सदवट्ठिवं सहावे दव्वं दव्वस्स जो हि परिणामो। अत्थेसु सो सहावो ठिदिसंभवणाससंबधो।। (प्र० सा० २ : ७) द्रव्य का अपने अर्थों में-गुण-पर्यायों में जो परिणमन है, वह ध्रौव्य, उत्पाद और विनाश से संबद्ध है, वही द्रव्य का स्वभाव है। अपने उस स्वभाव में सदा स्थित रहने से द्रव्य सत् है। ५. ण भवो भंगविहीणो भंगो वा णत्थि संभवविहीणो। उप्पादोवि य भंगो ण विणा दव्वेण अत्थेण । । (प्र० सा० २ : ८) बिना व्यय के उत्पाद नहीं होता और बिना उत्पाद के व्यय नहीं होता तथा ध्रौव्य पदार्थ द्रव्य के बिना उत्पाद और व्यय नहीं होते। ६. उप्पादट्ठिदिभंगा विज्जंते पज्जएसु पज्जाया। दव्वं हि संति णियदं तम्हा दवं हवदि सव्वं ।। (प्र० सा० २ : ६)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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