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महावीर वाणी १२. रयणाण महारयणं सव्वजोयाण उत्तमं जोयं।।
रिद्धीण महारिद्धि सम्मत्तं सबसिद्धियरं।। (द्वा० अ० ३२५)
सम्यक्त्व सब रत्नों में महारत्न है। सब योगों में उत्तम योग है। ऋद्धियों में सबसे बड़ी ऋद्धि है। अधिक क्या, यह सम्यक्त्व ही सब सिद्धियों को प्राप्त करानेवाला है। १३. सम्मत्तगुणपहाणो देविंदणरिंदवंदिओ होदि।
चत्तवओ वि य पावइ सग्गसुहं उत्तमं विविहं।। (द्वा० अ० ३२६)
जो समयक्त्व गुण से प्रधान होता है वह देवेन्द्र तथ नरेन्द्रों द्वारा वन्दनीय होता है। व्रतरहित होने पर भी वह अनेक प्रकार के उत्तम स्वर्गसुखों को प्राप्त करता है।
३. सम्यग्दृष्टि : मिथ्यादृष्टि २. सम्म विणा सण्णाणं सच्चारित्तं ण होइ णियमेण ।
तो रयणत्तयमज्झे सम्मगुणुक्किट्ठमिदि जिणुद्दिठें।। (र० सा० ४७)
सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र नियम से नहीं होते। इसलिए रत्नत्रय के बीच सम्यक्त्व गुण ही उत्कृष्ट है ऐसा जिनवर भगवान् ने कहा है। - ३. जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं ।
ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं ।। (द० पा० २०)
जिनवर भगवान् ने जीव आदि पदार्थों के श्रद्धान को व्यवहार नय से सम्यग्दर्शन कहा है, किन्तु निश्चयनय से आत्मा (का श्रद्धान) ही सम्यक्त्व है। ४. जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं । केंवलिजिणेहिं भणियं सद्दहमाणस्स सम्मत्तं । ।(द० पा० २२)
जो किया जा सके उसे करना चाहिए, जिसे करना शक्य न हो उसमें श्रद्धा करनी चाहिए। केवलि भगवान् ने श्रद्धान करनेवाले को सम्यक्त्व कहा है। ५. णिज्जियं दोसं देवं सव्व-जिवाणं दयावरं धम्मं ।
वज्जिय.गंथं च गुरु जो मण्णदि सो हु सद्दिट्ठी।। (द्वा० अ० ३१७)
जो जीव वीतराग अर्हन्त को देव, सब जीवों की दया को श्रेष्ठ धर्म और निग्रंथ को गुरु मानता है, वही सम्यग्दृष्टि है। ६. दोस.सहियं पि देवं जीव-हिंसाइ-संजुदं धम्म।
गंथासत्तं च गुरुं जा' मण्णदि सो हु कट्ठिी ।। (द्वा० अ० ३१८)