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३६. श्रमण-शिक्षा
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केवली भगवान् के शासन में उसी के सामायिक स्थिर में कही गई है, जो जुगुप्सा, भय और वेद - इन सब का हमेशा वर्जन करता है।
१२. जो दु धम्मं च सुक्कं च झाणं झाएदि णिच्चसा । तस्स सामाइगं ठाई इदि
केवलिसासणे ।। (नि० सा० १३३)
केवली भगवान् के शासन में उसी के सामायिक स्थिर कही गई है, जो सदा धर्म और शुक्ल ध्यान का ध्याता है।
१६. अनीश्वर
१. गोपालो भंडबालो वा जहा तद्दव्वऽणिस्सरो । एय अणिस्सरो तं पि सामण्णस्स भविस्ससि ।।
( उ० २२ : ४५)
जैसे ग्वाल गायों को चराने पर भी उनका मालिक नहीं हो जाता और न भाण्डपाल धन की संभाल करने से धन का मालिक, वैसे ही केवल वेष के रक्षामात्र से तू साधुत्व का अधिकारी नहीं हो सकेगा।
२. कहं नु कुज्जा सामण्णं जो कामे न निवारए ।
पए पए विसीयंतो संकप्पस्स वसं गओ ।।
(द०२ : १)
जो संकल्प के वश हो पद-पद पर विषाद- युक्त हो जाता है और काम-विषयराग का निवारण नहीं करता, वह श्रमणत्व का पालन कैसे कर सकेगा ?
३. चालणिगयं व उदयं सामण्णं गलई अणिहुदमणस्स । कायेण व वायाए जदि पि जधुत्तं चरदि भिक्खू ।।
जिसका मन वश में नहीं है, वह साधु भले ही काया और वचन से शास्त्रोक्त विधिपूर्वक संयम का पालन करता हो, पर उसका श्रामण्य वैसे ही जल जाता है, जैसे चालनी में रहा हुआ जल ।
४. खंदेण आसणत्थं वहेज्ज गरुगं सिलं तह भोगत्थं होदि हु संजयपहणं
(भग० आ० १३३)
जहा कोइ । णिदाणेण ||
(भग० आ० १२४७)
निदान करने से मुनि का महान् संयम भोग के लिए ही हो जाता है। उसका श्रामण्य पालन जैसा ही होता है जैसे कोई आसन (बैठने) के लिए भारी शिला को कंधे पर ढोता हो ।