SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 370
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६. श्रमण-शिक्षा ३४५ १६. णिच्चं च अप्पमत्ता संजमसमिदीसमु झाणजोगेसु। तवचरणकरणजुत्ता हवंति सवणा समिदपावा।। (मू० ८६२) श्रमण संयम, समिति, ध्यान, और योगों में प्रमाद-रहित होते हैं। वे तप, चारित्र और करण में उद्यमी होते हैं। पापों के नाश करने वाले होते हैं। १७. जदिवि य करेंति पावं एदे जिणवयणबाहिरा पुरिसा। तं सव्वं सहिदवं कम्माण खयं करतेण।। (मू० ८६६) यद्यपि जिन.वचमों से बाहर ये पुरुष पाप कर्म करते हैं तो भी जिसे कर्मों का नाश करना है, उस साधु को सब उपसर्ग सह लेने चाहिए। १८. सामयिक [१] १. उवणीयतरस्स ताइणो भयमाणस्स विविक्कमासणं। सामाइयमाहु तस्स जं जो अप्पाण भए ण दसए।। (सू० १, २ (२) : १७) उसी के सामायिक कही है, जिसने अपनी आत्मा को ज्ञान आदि के समीप पहुंचा दिया है, जो जीवों का त्राता है, जो शयनासन का सेवन करता है और जो अपनी आत्मा में भय प्रदर्शित नहीं करता। २. अपडिण्णस्स लवावसक्किणो।' सामाइयामाहु तस्स जं।। (सू० १, २ (२) : २०) सामायिक उसके कही है, जिसके किसी प्रकार का प्रतिज्ञाफल (कामना) नहीं होता तथा जो कर्म-बंध के हेतु-रूप कार्यों से दूर रहता है। ३. जीविदमरणे लाहालाभे संजोयविप्पओगे य। बंधुरिसुहदुक्खादिसु समदा सामायियं णाम ।। (मू० २३) जीवन-मरण में, लाभ-अलाभ में, संयोग-वियोग में, बंधु-शत्रु में, सुख-दुःख में, उष्ण-समत्व में राग-द्वेष रहित समान परिणाम को ही सामायिक कहते हैं। ४. सम्मत्तणाणसंजमतवेहिं जं तं पसत्यसमगमणं । समयतु तं तु भणिदं तमेव सामाइयं जाणे।। (मू० ५१६)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy