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६. देहे णिरावयक्खा अप्पाणं दमरुई दमेमाणा । धिदिपग्गहपग्गहिदा छिंदति भवस्स मूलाई ।।
(मू० ८०६)
देह में ममत्व-रहित, समभाव में रुचिवाले मुनि आत्मा का दमन करते हुए धैर्यरूपी बल से युक्त हो संसार के मूल का छेदन करते हैं।
१०. अवगदमाणत्थंभा अणुस्सिदा अगव्विदा अचंडा य । दंता मद्दवजुत्ता समयविदण्णू विणीदा य ।।
( मू० ८३४)
मुनि अभिमानरहित, मदरहित अनुत्सृत लेश्यावाले, गर्वरहित, क्रोधरहित, दांत, मार्दवयुक्त तथा स्वमत परमत के ज्ञाता और विनयशील होते हैं।
११. ते छिण्णणेहबंधा णिण्णेहा अप्पणो सरीरम्मि ।
(मू० ८३६)
साधु स्नेह और बंधन को छिन्न करने वाले होते हैं। अतः वे अपने शरीर के प्रति भी निःस्नेह होते हैं।
१२. जं वंतं गिहवासे विसयसुहं इंदियत्थपरिभोये ।
तं खु ण कदाइभूदो भुंजति पुणोवि सप्पुरिसा । ।
महावीर वाणी
(मू० ८५१)
गृह-वास में रूप, रस, गंध, स्पर्श और भोग से उत्पन्न जिन विषय सुखों को एक बार छोड़ दिया, उन्हें सत्पुरुष फिर कभी भी किसी भी कारण से नहीं भोगते ।
१३. भासं विणयविहूणं धम्मविरोही विवज्जये वयणं । पुच्छिदमपुच्छिदं वा गवि ते भासति सप्पुरिसा ।।
(मू० ८५३)
सत्पुरुष विनयरहित, कठोर भाषा का तथा धर्म से विरुद्ध वचनों का वर्जन करते हैं और पूछने अथवा न पूछने पर अन्यथा वचनों को कभी नहीं बोलते।
१४. अच्छीहिंअ पेच्छंता कण्णेहिं य बहुविहाय सुणमाणा । अत्यंति मूमभूयाण ते करंति हु लोइयकहाओ । ।
(मू० ८५४) साधु नेत्रों से सब कुछ देखते हुए भी, कानों से बहुत प्रकार की बातों को सुनते हुए भी गूंगे के समान रहते हैं । वे लौकिकी कथा नहीं करते ।
१५. विकहाविसोत्तियाणं खणमवि हिदएण ते ण चिंतंति । धम्मे लद्धमदीया विकहा तिविहेण वज्जंति ।।
(मू० ८५७)
मुनि विकथा और मिथ्याशास्त्र का मन से भी चिंतन नहीं करते । धर्म में प्राप्त बुद्धि वाले मुनि विकथा को मन, वचन, काया से छोड़ देते हैं ।