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________________ ३६. श्रमण-शिक्षा ३३७ इस संसार में मनुष्य द्वारा जिस तरह कर्मों का बन्धन होता है, उसी तरह उस बंधन से उसकी मृत्यु भी कही गई है। बंध और मोक्ष की प्रक्रिया के यथार्थ स्वरूप को जाननेवाला वह मुनि अन्तकृत कहा गया है । ११. इमंमि लोए परए य दोसुवि ण विज्जइ बंधण जस्स किंचिवि । से हु णिरालंबणे अप्पइट्ठिए कलंकली भावपहं विमुच्चइ || (आ० चू० १६ : १२) जिसे इस लोक और परलोक दोनों में किंचित् भी बंधन नहीं है तथा जो सर्व पदार्थों की आकांक्षा से रहित - निरालंब और अप्रतिबद्ध है वह कलंकलीभूत जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त हो जाता है। १२. निर्मोह १. विजहित्तु पुव्वसंजोगं न सिणेहं कहिंचि कुव्वेज्जा । असिणेह सिणेहकरेहिं दोसपओसेहिं मुच्चए भिक्खू ।। (उ०८ : २) पूर्व संयोगों को छोड़ चुकने पर फिर किसी भी वस्तु में स्नेह न करें। स्नेह (मोह) करनेवालों के साथ भी निःस्नेह (निर्मोह) होता है, वह भिक्षु दोष-प्रदोषों से मुक्त हो जाता है। २. दुपरिच्चया इमे कामा नो सुजहा अधीरपुरिसेहिं । अह संति सुव्वया साहू जे तरंति अतरं वणिया व । । (उ० ८ : ६) ये काम दुस्त्यज हैं। अधीर पुरुषों द्वारा सहज में त्याज्य नहीं। जो सुव्रती साधु होते हैं, वे इन दुस्तर कामभोगों को उसी तरह तैर जाते हैं, जिस तरह वणिक् समुद्र को । ३. समणा मु एगे वयमाणा पाणवहं मिया अयाणंता । मंदा निरयं गच्छंति बाला पावियाहिं दिट्ठीहिं । । ( उ०८ : ७ ) हम साधु हैं - ऐसा कहनेवाले पर प्राणी-वध में पाप नहीं जाननेवाले मृग के समान.. मन्द-बुद्धि पुरुष अपनी पापपूर्ण दृष्टि से नरक में जाते हैं। ४. न हु पाणवहं अणुजाणे मुच्चेज्ज कयाइ सव्वदुक्खाणं । एवारिएहिं अक्खायं जेहिं इमो साहुधम्मो पन्नत्तो | | ( उ०८ : ८ ) जिन आर्यों ने इस साधु धर्म का कथन किया है, उन्होंने कहा है कि प्राणि वध का अनुमोदन करनेवाला अवश्य ही कभी भी सर्व दुःखों से नहीं छूट सकता ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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