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महावीर वाणी
- अनुत्तर धर्मपदों का अनुसरण करनेवाला, विनीत, विद्वान्, विनीततृष्ण, समाहित
और ध्यानयुक्त मुनि के तप, प्रज्ञा और यश उसी तरह वृद्धि को प्राप्त होते हैं जिस तरह अग्नि-शिखा प्रकाश से। . ६. सितेहिं भिक्खू असिते परिव्वए असज्जमित्थीसु चएज्ज पूअणं । अणिस्सिओ लोगमिणं तहा परं ण मिज्जति कामगुणेहिं पंडिए।।
(आ० चू० १६ : ७) भिक्षु बँधे हुओं में अबद्ध रहे। स्त्रियों में आसक्त न हो। पूजा-सत्कार.सम्मान की इच्छा का त्याग करे। इस लोक तथा परलोक की कामना से रहित हो। पंडित साधु कामगुणों में न फँसे। ७. तहा विमुक्कस्स परिण्णचारिणो धिईमओ दुक्खखमस्स भिक्खुणो। विसुज्झई जंसि मलं पुरेकडं समीरियं रुप्पमलं व जोइणा।।
(आ० चू० १६ : ८) इस तरह विमुक्त तथा विवेकपूर्वक आचरण करनेवाले उस धुतिमान और दुःखसह भिक्षु से पूर्वकृत सारे पाप कर्म उसी तरह दूर हो जाते हैं जिस तरह अग्नि के ताप द्वारा चाँदी का मैल।
८. से हु प्परिण्णा समयंमि वट्टइ णिराससे उवरय-मेहुणे चरे। . भुजंगमे जुण्णतयं जहा जहे विमुच्चइ से दुहसेज्ज माहणे ।।
(आ० चू० १६ : ६) विवेक और ज्ञान के अनुसार चलनेवाला, आशंसा-आकांक्षा रहित और मैथुन से उपरत वह माहन-किसी की हिंसा न करनेवाला मुनि जिस तरह सर्प जीर्ण काँचली को छोड़ता है, उसी तरह दुःखशय्या से मुक्त हो जाता है। ६. जमाहु ओहं सलिलं अपारगं महासमुदं व भुयाहि दुत्तरं। अहे य ण परिजाणाहि पंडिए से हु मुणी अंतकडे त्ति वुच्चइ ।।
(आ० चू० १६ : १०) अपार सलिल से भरे महासमुद्र को भुजाओं से तैरना कठिन होता है वैसे ही संसार का पार पाना कठिन कहा गया है। उस संसार के स्वरूप को जानकर ज्ञानी उसका त्याग करे । जो ऐसा करता है, वह मुनि ही अन्तकृत (संसार का अन्त लानेवाला) कहलाता है। १०. जहा हि बद्धं इह माणवेहि य जहा य तेसिं विमोक्ख आहिओ। अहा तहा बंधविमोक्ख जे विऊ से हु मुणी अंतकडे त्ति वुच्चइ ।।
(आ० चू० १६ : ११)