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३६. श्रमण - शिक्षा
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११. विमुक्त
१. अणिच्चमावासमुवेंति जंतुणो पलोयए सोच्चमिदं अणुत्तरं । विऊसिरे विष्णु अगारबंधणं अभीरु आरंभपरिग्गहं चए ।। (आ० चू० १६ : १)
प्राणी चार गतियों में जो भी आवास प्राप्त करते हैं वह अनित्य है । इस अनुत्तर उपदेश को सुनकर, उस पर विचार कर विद्वान व्यक्ति गृहबंधन का परित्याग करे और निर्भय हो आरंभ और परिग्रह को छोड़े ।
२. तहागअं भिक्खु मणंतसंजयं अणेलिसं विण्णु चरंतमेसणं । तुदंति वायाहि अभिद्दवं णरा सरेहिं संगामगयं व कुंजरं । ।
(आ० चू० १६ : २)
उत्तम भावना से भावित अनन्त जीवों के प्रति संयत विद्वान् भिक्षु को अनुपम भिक्षाचर्या करते समय कई मनुष्य, संग्राम में गये हुए हाथी को वाणों से बींधने के समान असभ्य वचनों से व्यथित करते हैं और उस पर अन्य उपद्रव करते हैं।
३. तहप्पगारेहिं जणेहिं हीलिए ससद्दफासा फरुसा उदीरिया । तितिक्खए णाणि अद्द्वचेयसा गिरिव्व वाएण ण संपवेवए । । (आ० चू० १६ : ३)
उसी प्रकार लोगों द्वारा तर्जित और कर्कश शब्द और स्पर्श द्वारा व्यथित किया जाता हुआ ज्ञानी.भिक्षु इन कष्टों को वैसे ही अदुष्टचित से सहन करे जैसे पर्वत वायु से प्रकम्पित नहीं होता हुआ उसे सहन करता है ।
४. उवेहमाणे कुसलेहिं संवसे अकंतदुक्खी तसथावरा दुही । अलूसए सव्वसहे महामुणी तहा हि से सुस्समणे समाहिए ।। (आ० चू० १६ : ४)
भिक्षु परीषहों को सहन करता हुआ कुशल मुनियों के साथ रहे। अनेक प्रकार के अप्रिय दुःखों से दुःखित त्रस और स्थावर जीवों को किसी प्रकार का परिताप न देता हुआ सर्वसह हो। इस तरह करनेवाला और सर्वसह होने के कारण ही वह महामुनि श्रेष्ठ श्रमण कहा जाता है।
५. विदू णते धम्मपयं पणुत्तरं विणीयतण्हस्स मुणिस्स झायओ । समाहियस्सऽग्गिसिहा व तेयसा तवो य पण्णा य जसो य वड्ढइ | |
(आ० चू० १६ : ५)