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महावीर वाणी
गृह में ज्ञानरूपी दीपक न देख जो पुरुष प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं, वे पुरुषानीय-बड़े. से बड़े आश्रय.स्थल हो जाते हैं। ऐसे पुरुष बंधन से मुक्त होते हैं। वे वीर पुरुष असंयममय जीवन की इच्छा नहीं करते। ७. लद्धे कामे ण पत्थेज्जा विवेगे एव माहिए।
आयरियाई सिक्खेज्जा बुद्धाणं अंतिए सया।। (सू० १, ६ : ३२)
काम-भोग प्राप्त हों, तो भी उनकी कामना न करे । ज्ञानियों ने त्यागियों के लिए ऐसा ही विवेक बतलाया है। बुद्ध पुरुष के समीप रहकर मुनि सदा आर्यधर्म (सदाचार) सीखे। ८. अगिद्धे सद्दफासेसु आरंभेसु अणिस्सिए।
सव्वं तं समयातीतं जमेत्तं लवियं बहु ।। (सू० १, ६ : ३५) __ सत्य मार्ग की गवेषणा करनेवाला पुरुष शब्द, स्पर्श प्रमुख विषयों में अनासक्त रहता है तथा छह काया की हिंसावाले कार्यों में प्रवृत्ति नहीं करता। जो सब बातें निषेध की गई हैं। वे दर्शन से विरूद्ध होने के कारण निषेध की गई हैं।
६. णिव्वाण-परमा बुद्धा णक्खत्ताण व चंदमा। । तम्हा सया जए दंते णिव्वाणं संधए मुणी।। (सू० १, ११ : २२)
बुद्ध पुरुषों ने निर्वाण को वैसे ही परम श्रेष्ठ कहा है, जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा होता है। अतः मुनि सदा यतनाशील और जितेन्द्रिय रहकर मोक्ष की साधना करे। १०. वुज्झमाणाण पाणाणं किच्चंताणं सकम्मणा।
आघाति साधुतं दीवं पतिढेसा पवुच्चई ।। (सू० १, ११ : २३)
अपने धर्मों से कष्ट पाते हुए तथा संसार.सागर में डूबते हुए प्राणियों के लिए तीर्थंकर धर्म को ही उत्तम द्वीप कहते हैं। उनके द्वारा धर्म को ही प्रतिष्ठा-आधार-कहा गया है। ११. संधए साहुधम्मं च पावधम्मं णिराकरे।
उवाधाणवीरिए भिक्खू कोहं माणं ण पत्थर।। (सू० १, ११ : ३५)
भिक्षु क्षान्ति आदि साधु-धर्मों की वृद्धि करे। पाप धर्म का त्याग करे। तप करने में यथाशक्य पराक्रमी भिक्षु क्रोध और मान का वर्जन करे।