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३६. श्रमण-शिक्षा
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१०. ऋजुधर्मा १. माता पिता ण्हुसा भाया भज्जा पुत्ता य ओरसा।
णालं ते मम ताणाए लुप्तस्स सकम्मुणा।। एयम8 सपेहाए परमट्ठाणुगामिय। णिम्ममो णिरहंकारो चरे भिक्खू जिणाहियं ।। (सू० १, ६ : ५-६)
'अपने कर्मों से संसार-चक्रवाल में पीड़ित मेरी-माता, पिता, पुत्रवधू, भाई, स्त्री और पुत्र भी रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं'-इस तथ्य को विचार कर परमार्थ का अनुगामी भिक्षु ममता और अहंकार-रहित होकर जिन-कथित धर्म का आचरण करे। २. संतिमा तहिया भासा जं वइत्ताणतप्पई।।
जं छणं तं ण वत्तव्वं एसा आणा णियंठिया ।। (सू० १, ६ : २६)
चार प्रकार की भाषाओं में से तृतीय भाषा (झूठ मिश्रित सत्यभाषा) साधु न बोले। जिसे बोलने से बाद में अनुताप हो वैसी भाषा भी न बोले। जो भाषा छन्न-हिंसाप्रट न हो उसे न बोले। यही निर्ग्रन्थ प्रभु की आज्ञा है। ३. होलावायं सहीवायं गोयवायं च णो वए।
तुमं तुमं ति अमणुण्णं सव्वसो तं ण वत्तए।। (सू० १, ६ : २७)
'होला'वाद, 'सखि वाद, 'गोत्र'वाद भाषा न बोले । 'तू-तू' आत्मक भाषा न बोले । जो भाषा अमनोज्ञ हो, साधु उसका सर्वशः प्रयोग न करे। ४. अकुसीले सदा भिक्खू णो य संसग्गियं भए।
सुहरूवा तत्थुवसग्गा पडिबुज्झेज्ज ते विदू।। (सू० १, ६ : २८)
भिक्षु स्वयं सदा अकुशील रहे। वह कुशील-दुराचारियों का संसर्ग न करे। कुशीलों की संगति में सुखरूप-अनुकूल विपद रहती है-यह विद्वान पुरुष जाने । ५. अणुस्सुओ उरालेसु जयमाणो परिव्वए।
चरियाए 'अप्पमत्तो पुट्ठो तत्थऽहियासए।। (सू० १, ६ : ३०)
साधु मनोहर शब्दादि विषयों में अनुत्सुक हो। यतना पूर्वक रहे। अपनी चर्या में अप्रमत्त हो। परीषहों से स्पृष्ट होने पर उन्हें समभावपूर्वक सहन करे। ६. गिहे दीवमपासंता पुरिसादाणिया णरा।
ते वीरा बंधणुम्मुक्का णावकंखंति जीवियं ।। (सू० १, ६ : ३४)