SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर वाणी १०. जो सहइ हु गामकंटए अक्कोसपहारतज्जणाओ य। भयभेरवसद्दसंपहासे समसुहदुक्खंसहे य जे स भिक्खू ।। (द० १० : ११) जो काँटे के समान चुभनेवाले इन्द्रिय-विषयों, आक्रोश- वचनों, प्रहारों, तर्जनाओं और वेताल आदि के अत्यन्त भयानक शब्दयुक्त अट्टहासों को सहन करता है तथा सुख और दुःख को समभावपूर्वक सहन करता है-वह भिक्षु है। ११. पडिम पडिवज्जिया मसाणे नो भायए भयभेरवाइं दिस्स । विविहगुणतवोरए य निच्चं न सरीरं चाभिकंखई जे स भिकखू ।। (द० १० : १२) जो श्मशान में प्रतिमा को ग्रहण कर अत्यन्त भयजनक दृश्यों को देखकर नहीं डरता, जो विविध गुणों और तपों में रत होता है, जो शरीर की आकांक्षा नहीं करता, वह भिक्षु है। १२. पहाय रागं च तहेव दोसं मोहं च भिक्खू सययं वियक्खणो। मेरु व्व वाएणं अकम्पमाणो परीसहे आयुगुत्ते सहेज्जा ।। (द० २१ : १६) विचक्षण भिक्षु, राग, द्वेष तथा मोह को सतत् छोड़े तथा जिस तरह मेरु वायु से कम्पित नहीं होता उसी तरह आत्मगुप्त परीषहों को अकम्पित भाव से सहन करे। १३. अणुन्नए नावणए महेसी न यावि पूयं गरहं च संजए। स उज्जुभावं पडिवज्ज संजए निव्वाणमग्गं विरए उवेइ ।। ___ (द० २१ : २०) जो न अभिमानी है और न दीनवृत्तिवाला है-जिसका पूजा में उन्नत भाव नहीं और न निन्दा में अवनत भाव है, जो इनमें लिप्त नहीं होता, वह ऋजुभाव को प्राप्त संयमी महर्षि पापों में विरत होकर निर्वाण-मार्ग को प्राप्त करता है। १४. सन्नाणनाणोवगए महेसी अणुत्तरं चरिउं धम्मसंचयं । अणुत्तरेनाणधरे जसंसी ओभासई सूरिए वंतलिक्खे।। (द० २१ : २३) सद्ज्ञान से ज्ञान- प्राप्त महर्षि मुनि अनुत्तर धर्म-संचय का आचरण कर अनुत्तर जानधारी और यशस्वी होकर अन्तरिक्ष में सूर्य की भाँति चमकता है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy