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३६. श्रमण-शिक्षा
३३१ ५. अरइरइसहे पहीणसंथवे विरए आयहिए पहाणवं।
परमट्ठपएहिं चिट्ठई छिन्नसोए अममे अकिचणे।। (उ० २१ : २१)
जो रति और अरति को सहन करनेवाला है, जो गृहस्थ के परिचय का नाश कर चुका, जो पापों से विरत है, जो आत्महितैषी है, संयम जिसका प्रधान लक्ष्य है, जो छिन्नशोक है तथा जो ममत्वरहित और अकिंचन है-वही परमार्थ-पदों में निर्माणमार्ग पर अवस्थित है। ६. सीओसिणा दंसमसा य फासा आयंका विविहा फुसंति देहं । अकुक्कुओ तत्थऽहियासएज्जा रयाई खेवेज्ज पुरेकडाई ।।
(उ० २१ : १८) सर्दी, गर्मी, दंश, मशक, कठोर-तीक्ष्ण स्पर्श तथा विविध आतंक आदि अनेक परीषह मनुष्य शरीर को स्पर्श करते हैं। साधु इन सबको बिना किसी विकृति के सहन करे। इस प्रकार वह पूर्व संचित रज का क्षय करे। ७. उवेहमाणो उ परिव्वएज्जा पियमप्पियं सव्व तितिक्खएज्जा। न सव्व सव्वत्थऽभिरोएज्जा न यावि पूयं गरहं च संजए।।
(उ० २१ : १५) . संयमी मुनि विरोधियों की उपेक्षा करता हुआ विचरण करे। प्रिय और अप्रिय सब सहन करे। जहाँ जो हो सब में अभिरुचि न करे, न पूजा एवं गर्हा की स्पृहा करे। ८. अणेगछन्दाइह माणेवहिं जे भावओ संपगरेइ भिक्खू । भयभेरवा तत्थ उइंति भीमा दिव्वा मणुस्सा अदुवा तिरिच्छा।।
(उ० २१ : १६) इस लोक में मनुष्य के अनेक अभिप्राय होते हैं। यहाँ देवताओं के, मनुष्यों के और तिर्यंचों के अनेक भयंकर भय-भैरव उत्पन्न होते हैं। भिक्षु उन सबको समभाव से ले और सहन करे। ६. परीसहा दुव्विसहा अणेगे सीयंति जत्था बहुकाया नरा। से तत्थ पत्ते न वहिज्जा भिक्खू संगामसीसे इव नागराया।।
(उ० २१ : १७) ऐसे अनेक दुःसह परीषह हैं, जिनके सम्मुख बहुत-से कायर पुरुष व्यथित हो जाते हैं, पर भिक्षु उनके उपस्थित होने पर उसी तरह व्यथित नहीं होता, जिस तरह संग्राम के अग्र-मुख पर रहा हुआ नागराज |