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________________ महावीर वाणी राग और द्वेष से पराजित तथा मिथ्यात्व से व्याप्त अन्यतीर्थी युक्तियों द्वारा बाद करने में असमर्थ होने पर आक्रोश और मारपीट आदि का वैसे ही आश्रय लेते हैं जैसे टङकूण नामक म्लेच्छ जाति हारकर पहाड़ का आश्रय लेती है। ३३० १४. बहुगुणप्पकप्पाई कुज्जा अत्तसमाहिए । जेणणे ण विरुज्झेज्जा तेणं तं तं समायरे ।। (सू० १, ३ (३) : १६) आत्म-समाधि में लीन मुनि वाद करते समय ऐसी बातें करें जो अनेक गुण उत्पन्न करने वाली हों । मुनि, प्रतिवादी विरोधी न बने, ऐसा कार्य अथवा भाषण करे । ६. मार्ग स्थित भिक्षु १. जहित्तु संगं च महाकिलेसं महंतमोहं कसिणं भयावहं । परियायधम्मं चऽभिरोयएजा वयाणि सीलाणि परीसहे य । । (उ० २१ : ११) महान् क्लेश और महान् मोह को उत्पन्न करनेवाले कृष्ण और भयावह ममत्व को छोड़कर पर्याय- धर्म (संयम), व्रत और शील परीषहों में अभिसरुचि रखे । २. अहिंस सच्चं व अतेणगं च तत्तो य बम्भं अपरिग्गाहं च । पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं विऊ ।। (उ० २१ : १२) विद्वान् अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य और परिग्रह - इन पाँच महाव्रतों को ग्रहण कर जिनोपदिष्ट धर्म का आचरण करें। ३. सव्वेहिं भूएहिं दयाणकुम्पी खंतिक्खमे संजयबम्भयारी । सावज्जजोगं परिवज्जयन्तो चरिज्जा भिक्खू सुसमाहिइंदिए य ।। ( उ० २१ : १३) सुसमाहित-इन्द्रिय भिक्षु भूतों के प्रति दयानुकम्पी हो। वह क्षमाशील हो, संयत हो, ब्रह्मचारी हो। वह सर्व सावद्य योग का वर्जन करता हुआ विचरे । ४. कालेण कालं विहरेज्ज रट्ठे बलाबलं जाणिय अप्पणो य । सीहो व सद्देण न संतसेज्जा वयजोग सुच्चा न असब्भमांहु ।। ( उ० २१ : १४) : मुनि अपने बलाबल को जानकर कालोचित कर्त्तव्य करता हुआ राष्ट्र में विहार करे। वह सिंह की तरह भयानक शब्दों से संत्रस्त न हो। वह अयोग्य वचन सुनकर A असभ्य वचन न बोले ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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