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३६. श्रमण-शिक्षा
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उपदेशक सिद्धान्त का लोप न करे, वह प्रच्छन्न भाषी न हो। वह सूत्र और अर्थ को विकृत न करे परन्तु उनकी अच्छी तरह रक्षा करने वाला हो। वह गुरु के प्रति अच्छी तरह भक्ति रखता हुआ, गुरु की बात का विचार कर सुनी हुई बारत को यथातथ्य कहे। ६. से सुद्धसुत्ते उवहाणवं च धम्मं च जे विंदति तत्थ तत्थ । आएज्जवक्के कुसले वियत्ते से अरिहइ भासिउं तं समाहिं।।
. (सू० १, १४ : २७) जो आगम सूत्रों को शुद्ध रूप से समझता हो, जो धर्म को यथातथ्य जानता हो, जो प्रामाणिक बोलता हो, जो कुशल हो तथा विवेकयुक्त हो वही समाधि-साधना (मोक्ष-मार्ग) का उपदेश देने योग्य है। १०. केसिंचि तक्काए अबुज्झ भावं खुदं पि गच्छेज्ज असद्दहाणे। आउस्स कालतियारं वघातं लद्धाणुमाणे य परेसु अट्ठे ।।
(सू० १, १३ : २०) तर्क से दूसरे के भाव को न समझकर उपदेश करने से दूसरा पुरुष श्रद्धा न कर क्षुद्रता धारण कर सकता है और आयुक्षय भी कर सकता है, इसलिए अनुमान से दूसरे का अभिप्राय समझकर धर्मोपदेश करे। ११. ण पूयणं चेव सिलोय कामे पियमप्पियं कस्सइ णो करेज्जा। सव्वे अणढे परिवज्जयंते अणाइले या अकसाइ भिक्खू ।।
(सू० १, १३ : २२) भिक्षु धर्मोपदेश के द्वारा अपनी पूजा और स्तुति की कामना न करे तथा किसी का प्रिय अथवा अप्रिय न करे एवं सब अनर्थों को टालता हुआ अनाकुल और कषायरहित होकर धर्मोपदेश करे। १२. आयगुत्ते सया दंते छिण्णसोए णिरासवे।
जे धम्मं सुद्धमक्खाति पडिपुण्णमणेलिस।। (सू० १, ११ : २४) ___ जो आत्मगुप्त हैं, सदा इन्द्रि-दमन करने वाला है, छिन्नस्रोत है एवं अनास्रव है एवं अनास्रव है, वही शुद्ध, प्रतिपूर्ण एवं अनुपम धर्म का उपदेश करता है।
[२] १३. रागदोसाभिभूयप्पा मिच्छत्तेण अभिदुया।
अक्कोसे सरणं जंति अंकणा इव पव्वयं ।। (सू० १, ३ (३) : १८)