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महावीर वाणी
साधु प्राणियों के विनाश की शंका से सावध वचन से घृणा करता है। वह मंत्रविद्या के द्वारा अपने गोत्र-संयम-को नष्ट न करे। लोगों को धर्मोपदेश करता हुआ उनसे किसी चीज की चाह न करे तथा असाधुओं के धर्म का उपदेश न दे। ४. हासं पि णो संधए पावधम्मे ओए तहिय फरुसं वियाणे। णो तुच्छए णो य विकत्थएज्जा अणाइले या अकसाइ भिक्खू ।।
(सू० १, १४ : २१) साधु हास्य उत्पन्न हो ऐसा शब्द या मन, वचन, काया की चेष्टा न करे। तथ्य होने पर भी दूसरे को कठोर लगने शब्द न कहे । विकथा न करे। वह लोभ आदि कषायरहित हो। ५. संकेज्ज या ऽसंकितभाव भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेज्जा। भासादुगं धम्म्समुट्ठितेहिं वियागरेज्जा समयाप्रसुपण्णे ।।
(सू० १, १४ : २२) अर्थ आदि के विषय-रहित भी भिक्षु संभल कर बोले । वह विभज्यवाद (स्याद्वादमय) वचन बोले। धर्म में समुपस्थित मनुष्यों में रहता हुआ दो भाषा-सत्य भाषा और व्यवहार का प्रयोग करे। सुप्रज्ञ समभाव से सबको धर्म कहे। ६. अणुगच्छमाणे वितहं ऽभिजाणे तहा तहा साहु अकक्कसेणं । ण कत्थई भास विहिंसएज्जा णिरुद्धगं वावि ण दीहएज्जा।।
(सू० १, १४ : २३) कई साधु के अर्थ को ठीक समझा लेते हैं। साधु अकर्कश शब्दों से वस्तु तत्त्व समझावे। कठोर बात न कहे। प्रश्नकर्ता की भाषा का उपहास न करे और न छोटे अर्थ को लम्बा करे। ७. अहाबुइयाइं सुसिक्खएज्जा या णाइवेलं वएजजा। से दिट्टिमं दिहि ण लूसएजजा से जाणइ भासिउं तं समाहिं।।
(सू० १, १४ : २५) उपदेशक बुद्ध वचनों को अच्छी तरह सीखे । गूढार्थ जानने के लिए यत्न करे। मर्यादा उपरान्त न बोले। वह दृष्टिवान् ज्ञानियों की दृष्टि न करे। ऐसा उपदेशक ही सच्ची भाव-समाधि जानता है। ८. अलूसए णो पच्छण्णभासी णो सुत्तमत्थं च करेच्च अण्णं । सत्थारभत्ती अणुवीचि वायं सुयं च सम्म पडिवादएजजा।।
(सू० १, १४ : २६)