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३६. श्रमण-शिक्षा
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८. जो परिभवई परं जणं संसारे परिवत्तई महं । अदु इंखिणिया उ पाविया इह संखाय मुणी य मज्जई ।।
(सू० १, २ (२) : २) जो दूसरों का तिरस्कार करता है, वह संसार में अत्यन्त परिभ्रमण करता है। परनिंदा को पापकारी समझकर मुनि किसी प्रकार का मद न करे। ६. जे यावि अणायगे, सिया जे वि य पेसगपेसगे सिया। इद मोणपयं उवहिए णो. लज्जे समयं सया चरे।।
(सू० १, २ (२) : ३) कोई नौकर का नौकर, तो भी संयम ग्रहण कर लेने पर मुनि परस्पर वंदनादि करने में निःसंकोच भाव हो सदा परस्पर समभाव रखें।
८. उपदेश और चर्चा विधि
[१] १. संखाए धम्मं च वियागरंति बुद्धा हु ते अंतकरा भवति। ते पारगा दोण्ह विमायणाए संसोधियं पणहमुदाहरंति ।।
(सू० १, १४ : १८) धर्म को अच्छी तरह जानकर जो बुद्ध पुरुष उपदेश देते हैं, वे ही सर्व सशयें का अन्त कर सकते हैं। अपनी और दूसरों की-दोनों की मुक्ति साधने वाले पारगामी पुरुष ही गूढ प्रश्नों का सोच-विचार कर उत्तर दे सकते हैं। २. णो छादए णो वि य लूयएज्जा माणं ण सेवेज्ज पगासणं च । ण यावि पण्णे परिहास कुज्जा ण याऽऽसिसावाद वियागरेज्जा ।।
(सू० १, १४ : १६) बुद्ध पुरुष सत्य को नहीं छिपाते, न उसका लोप करते हैं, वे मान नहीं करते, न अपनी बढ़ाई करते हैं। बुद्धिमान होकर वे दूसरों का परिहास नहीं करते और न आशीर्वाद देते हैं। ३. भूयाभिसंकाए दुगुंछमाणे ण णिव्वहे मंतपएण गोयं । ण किंचिमिच्छे मणुए पयासुं असाहुधम्माणि ण संवएज्जा ।।
(सू० १, १४ : २०)