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महावीर वाणी ५. इहजीवियं अणियमेत्ता पभट्ठा समाहिजोएहिं।
ते कामभोगरसगिद्धा उववज्जति आसुरे काए।। (उ० ८ : १४)
जो इस जन्म में जीवन को वश में न रख समाधियोग से परिभ्रष्ट होते हैं,, वे काम-भोग और रसों में गृद्ध जीव असुरकाय में उत्पन्न होते हैं।
६. तत्तो वि य उवट्टित्ता संसारं बहं अणुपरियडंति। ___बहुकम्मलेवलित्ताणं बोही होइ सुदुल्लहा तेसिं।। (उ० ८ : १५)
वहाँ से निकल जाने पर भी वे संसार में बहु पर्यटन करते हैं। बहुत कर्मों के लेप से लिप्त उनके लिए पुनः बोधि का पाना अत्यन्त दुर्लभ होता है।
१३. शैक्ष-बोध
१. गंथं विहाय इह सिक्खमाणो उट्ठाय सुबंभचेरं वसेज्जा। ओवायकारी विणयं सुसिक्खे जे छेए से विप्पमादं ण कुज्जा ।।
(सू० १, १४ : १) __ आत्मार्थी संसार में आत्म-कल्याण के लिए उद्यत हो धन-धान्यादि का त्याग करे। (नव प्रव्रजित साधु) धर्म-शिक्षा का बोध पाता हुआ, ब्रह्मचर्य का अच्छी तरह पालन करे। वह गुरु की आज्ञा का पालन करता हुआ विनय सीखे। निपुण साधु कभी भी प्रमाद न करे। २. सद्दाणि सोच्चा अदु भेरवाणि अणासवे तेसु परिव्वाएज्जा। णिदं च भिक्खू ण पमाय कुज्जा कहं कहं वी वितिगिच्छ तिण्णे ।।
(सू० १, १४ : ६) मधुर या भयंकर शब्दों को सुनकर शिष्य उनमें राग-द्वेष रहित होकर विचरे । साधु निद्रा और प्रमाद न करे और किसी विषय में भ्रम होने पर हर उपाय से मन की डाँवा-डोल स्थिति से उत्तीर्ण हो। ३. डहरेण वुड्ढेण ऽणुसासिते तु रातिणिएणाऽवि समव्वएणं। सम्मं तयं थिरतो णाभिगच्छे णिज्जंतए वावि अपारए से ।।
(सू० १, १४ : ७) जो बालक या वृद्ध, बड़े या समवस्क साधु द्वारा भूल सुधार के लिए कहे जाने पर अपने को सम्यक् रूप से स्थिर नहीं करता है, वह संसार-प्रवाह में बह जाता है और उसका पार नहीं पा सकता।