SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 347
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२२ ४. तेसिं चेव वदाणं रक्खट्ठ रादिभोयणणियत्ती । अट्ठयपवयणमादा य भावणाओ य सव्वाओ ।। (मू० २६५) रात्रिभोजन निवृत्ति का विधान अहिंसा पाँच महाव्रतों की रक्षा के लिए है, जैसे आठ प्रवचन-माताओं और सर्व भावनाओं का । ५. तेसिं पंचण्हंपि य वयाणमावज्जणं च संका वा । अ हवे आदविवत्ती रादीभत्तप्पसंगेण ।। (म २६६ ) रात्रि - भोजन के प्रसंग से मुनि के उन अहिंसादि पाँच महाव्रतों में मलिनता आती है, उनका नाश होता है, गृहस्थों को शंका होती है और आत्म-विपत्ति उत्पन्न होती है। ५. कौन संसार - भ्रमण नहीं करता ? १. रागद्दोसे य दो पावे पावकम्मपवत्तणे । जे भिक्खू रुम्भई निच्चं से न अच्छइ मंडले || महावीर वाणी (उ० ३१ : ३) राग और द्वेष- ये दो पाप है, जो ज्ञानावरणीय आदि पाप कर्मों के प्रवर्त्तक हैं। जो भिक्षु इनका सदा निरोध करता है, वह संसार में नहीं रहता। २. दण्डाणं गारवाणं च सल्लाणं च तियं तियं । जे भिक्खू चयई निच्चं से न अच्छइ मंडले । । ( उ० ३१ : ४) तीन दण्ड', तीन गौरव' तथा तीन शल्य' - इन तीन-तीन का जो भिक्षु नित्य त्याग करता है, वह संसार में नहीं रहता । ३. दिव्वे य जे उवसग्गे तहा तेरिच्छमाणुसे । जे भिक्खू सहई निच्चं से न अच्छइ मंडले || ( उ० ३१ : ४) जो मनुष्य देव, तिर्यञ्च और मनुष्य सम्बन्धी उपसर्ग - परीषहों को सदा सहता है । वह संसार में नहीं रहता । १. मन दंड, वचन दंड और काय दंड | २. ऋद्धि का गर्व, रस का गर्व और सात --सुख का गर्व । ३. माया, निदान (फल-कामना) और मिथ्यात्व |
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy