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३६. श्रमण - शिक्षा
४. विगहाकसायसन्नाणं झाणाणं च दुयं तहा । जे भिक्खू वज्जई निच्चं से न अच्छइ मंडले ||
चार विकथा', चार कषाय, चार संज्ञा और चार ध्यान में से भिक्षु नित्य टालता है, वह संसार में नही रहता ।
५. वएसु इन्यित्थेसु समिईसु किरियासु य। भिक्खू जई निच्चं से न अच्छइ मंडले ।।
जो भिक्षु महाव्रतो, समितियों, के पालन में, इन्द्रिय-विषयों परिहार में यत्न करता है, वह संसार में नही रहता ।
६. मयेसु बम्भगुत्तीसु भिक्खुधम्मंमि दसविहे । जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले ||
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( उ० ३१ : १० )
आठ प्रकार के मद'-त्याग, ब्रह्मचर्य की नौ गुप्ती" और दस प्रकार के भिक्षु धर्म" के प्रति जो भिक्षु यत्न करता है - वह संसार में नही रहता ।
१. राजकथा, देशकथा भोजकथा और स्त्रीकथा ।
२. क्रोध, मान, माया और लोभ ।
(उ० ३१ : ६)
दो ध्यान को जो
६. समत्व-साधना
१. ण सक्का ण सोउं सद्दा सोयविसयमागता ।
रागदोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए | | ( आ० चू० २, १५ : ७२)
३. आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा और परिग्रह संज्ञा ।
४. आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान- इन चार में से प्रथम दो ।
(उ० ३१ : ७)
और क्रियाओं के
शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है। कान में पड़े हुए शब्दों को न सुनना शक्य नहीं है । भिक्षुकान में पड़े हुए शब्दों में राग-द्वेष का परित्याग करे ।
५. पाँच महाव्रत । इनके लिए देखिए पृ० २३६ - २५६ ।
६. पाँच समिमतियाँ। इनके लिए देखिए पृ० २६० - २६४ ।
७. श्रोत, चक्षु, प्राण, रस और स्पर्श- इन पाँच के विषय ।
८. कायिकी, अधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, परितापनिकी और प्राणातिपातिकी ।
६. जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तपमद, ऐश्वर्यमद, श्रुतमद और लाभमद ।
१०. देखिए पृ० ३१८ - ३२१ |
११. क्षांति, मार्दव, आर्जव, मुक्ति-निर्लोभता, तप, संयम, सत्य, शौच, अकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ।