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३६. श्रमण-शिक्षा
१७. सद्दे रुवे य गन्धे य रसे फासे तहेव य । पंचविहे कामगुणे निच्चसो परिवज्जए । ।
( उ० १६ : १०)
ब्रह्मचारी शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श- इन पाँच प्रकार के इन्द्रियों के विषयों का सदा वर्जन करे ।
१८. धम्मारामे चरे भिक्खू धिइमं धम्मसारही । धम्मारामरए देते
बम्भचेरसमाहिए ।।
(उ०१६ : १५)
धैर्यवान् और धर्मरूपी रथ को चलाने में सारथी के समान भिक्षु धर्मरूपी बगीचे में विहार करे। धर्मरूपी बगीचे में आनन्दित रह इन्द्रियों का दमन करता हुआ भिक्षु ब्रह्मचर्य में समाधि प्राप्त करे ।
४. रात्रि - भोजन परित्याग
१. अहो निच्चं तवोकम्मं सव्वबुद्धेहिं वण्णियं । जाय लज्जासमा वित्ती एगभत्तं च भोयणं । ।
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(द० ६ : २२)
अहो ! साधु पुरुषों के लिए यह कैसा सुन्दर नित्य तपकर्म है जो उन्हें संयम निर्वाह-भर के लिए और केवल एक बार भोजन करना होता है। सब ज्ञानियों ने इस रात्रिभोजन विरमण रूप व्रत का वर्णन किया है।
२. संतिमे सुहुमा पाणा तसा अदुव थावरा । जाइं राओ अपासतो कहमेसणियं चरे ?
(द० ६ : २३)
संसार में बहुत-से त्रस और स्थावर प्राणी इतने सूक्ष्म होते हैं कि वे रात्रि में नहीं देखे जा सकते। फिर वह रात्रि में उन्हें न देखता हुआ किस प्रकार एषणीय - निर्दोष आहार को ला या भोग सकेगा।
३. अत्थंगयम्मि आइच्चे पुरत्था च अणुग्गए ।
आहारमइयं सव्वं मणसा वि न पत्थए । ।
(द० ६ : २८)
सूर्य अस्त होने से प्रातःकाल सूर्य के पुनः उदय न होने तक सर्व प्रकार के आहारदि की मन से भी इच्छा न करे ।