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________________ ३२० महावीर वाणी १०. समं च संथवं थीहिं संकहं च अभिक्खणं। बम्भचेररओ भिक्खू निच्चसो परिवज्जए।। (उ० १६ : ३) स्त्रियों की संगति, उनके साथ परिचय और उनसे बार-बार बातचीत करने से ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु हमेशा बचे।। ११. अंगपच्चंगसंठाणं चारूल्लवियपेहियं । बम्भचेररओ थीणं चक्खुगिज्झं विवज्जए।। (उ० १६ : ४) ब्रह्मचर्य में रत रहनेवाला भिक्षु स्त्रियों के चक्षुग्राह्य अंग-प्रत्यंग, संस्थान-आकार, बोलने की मनोहर मुद्रा और चितवन को देखने का वर्जन करे। १२. कुइयं रुइयं गीयं हसियं थणियकंदियं । ___ बम्भचेररओ थीणं सोयगिझं विवज्जए।। (उ० १६ : ५) ब्रह्मचर्य में रत पुरुष स्त्रियों के श्रोत्र-ग्राह्य कूजन, रोदन, गीत, हास्य, गर्जन, क्रंदन अथवा विषय-प्रेम के शब्दों को सुनने से दूर रहे। १३. हासं किडं रइ दप्पं सहसाऽवत्तासियाणि य। बम्भचेररओ थीणं नाणुचिंते कयाइ वि।। (उ० १६ : ६) ब्रह्मचर्य में रत पुरुष पूर्व में स्त्री के साथ भोगे हुए हास्य, क्रीड़ा, रति-मैथुन, दर्प और सहसा वित्तासन आदि के प्रसंगों का कभी भी स्मरण न करे। १४. पणीयं भत्तपाणं तु खिप्पं मयविवड्ढणं । बम्भचेररओ भिक्खू निच्चसो परिवजजए।। (उ० १६ : ७) ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु-विकार को शीघ्र बढ़ानेवाले प्रणीत खान-पान का सदा वर्जन करे। १५. धम्मलद्धं मियं काले जत्तत्थं पणिहाणवं । नाइमत्तं तु भुजेज्जा बम्भचेररओ सया।। (उ० १६ : ८) ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु गोचरी में धर्मानुसार प्राप्त आहार, जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए नियत समय और मित मात्रा में ग्रहण करे। वह कभी भी अति मात्रा में आहार का सेवन न करे। १६. विभूसं परिवज्जेज्जा सरीरपडिमण्डणं । बम्भचेररओ भिक्खू सिंगारत्थं न धारए।। (उ० १६ : ६) ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु विभूषा और शरीर-संस्कार-बनाव-श्रृंगार को छोड़ दे। वह कोई भी वस्तु शृंगार-शोभा के लिए धारण न करे।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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