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३६. श्रमण-शिक्षा
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तपस्वी श्रमण स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास, प्रिय भाषण, संकेत और कटाक्षपूर्ण दृष्टिपात को चित्त में स्थान न दे और न स्त्रियों को देखने की अभिलाषा करे। ५. कामं तु देवीहि विभूसियाहिं न चाइया खोभइउं तिगुत्ता। तहा वि एगंतहियं ति नच्चा विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो।।
(उ० ३२ : १६) मन, वचन, और काया से गुप्त जिस परम संयमी को विभूषित देवाग्ङनाएँ भी काम से विहल नहीं कर सकती, ऐसे मुनि के लिए भी एकांतवास ही हितकर जानकर स्त्री आदि से रहित एकान्त स्थान में निवास करना ही प्रशस्त कहा है। ६. जउकुम्भे जोइसुवगूढे आसुभितत्ते णासमुवयाइ। एवित्थियाहिं अणगारा संवासेण णासमुवयंति।।
__ (सू० १, ४ (१) : २७) जैसे अग्नि के पास रखा हुआ लाख का घड़ा शीघ्र तप्त होकर नाश को प्राप्त हो जाता है, उसी तरह स्त्रियों के सहवास से अनगार का संयमरूपी जीवन नाश को प्राप्त हो जाता है। ७. हत्थपायपडिच्छिन्नं कण्णनासविगप्पियं।
अवि वाससई नारिं बंभयारी विवज्जए।।' (द० ८ : ५५)
अधिक क्या, जिसके हाथ-पैर प्रतिछिन्न हों-कटे हों, जो नकटी और बूची-विकृत अंगवाली हो तथा जो सौ वर्ष की वृद्धा हो वैसी स्त्री के संसर्ग से भी ब्रह्मचारी बचे। ८. जं विवित्तमणाइण्णं रहियं थीजणेण य।
बम्भचेरस्स रक्खट्ठा आलय तु निसेवए।। (उ० १६ : १) ___ मुमुक्षु ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए उस आलय-स्थान में रहे, जो विविक्त, अनाकीर्ण और स्त्रियों से रहित हो। ६. मणपल्हायजणणिं कामरागविवड्ढणिं।
बम्भचेररओ भिक्खू थीकहं तु विवज्जए।। (उ० १६ : २)
ब्रह्मचर्य से अनुरक्त मुनि मन को चंचल करनेवाली और विषय-राग को बढ़ानेवाली स्त्री-कथा का वर्जन करे।
१. मू० ६६३।