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महावीर वाणी
१२. लोभस्सेसो अणुफासो मन्ने अन्नयरामवि।
जे सिया सन्निहीकामे गिही पव्वइए न से।। (द० ६ : १८)
संग्रह करना लोभ का अनुस्पर्श है। जो किसी भी वस्तु के संग्रह की कामना करता है, वह गृहस्थ है, साधु नहीं। ऐसा मैं मानता हूँ। १३. सन्निहिं च न कुब्वेज्जा लेवमायाए संजए।
पक्खी पत्तं समादाय निरवेक्खो परिव्वए।। (उ० ६ : १५)
संयमी मनि लेप मात्र भी संचय न करे। पक्षी की भाँति दूसरे दिन का ध्यान न रखते हुए पात्र लेकर भिक्षा के लिए पर्यटन करे।
३. ब्रह्मचर्य-समाधि १. अबंभचरियं घोरं पमायं दुरहिट्ठियं ।
नायरंति मुणी लोए भेयाययणवज्जिणो।। (द० ६ : १५)
चरित्र को भंग करनेवाली बातों का वर्जन करनेवाला-उनसे सदा सशंक रहने वाला-मुनि इस लोक में प्रमाद के घर, घोर दुष्परिणाम वाले और असेव्य अब्रह्मर्य का सेवन नहीं करते। २. मूलमेयमहम्मस्स महादोससमुस्सयं ।
तम्हा मेहुणसंसग्गिं निग्गंथा वज्जयंति णं।। (द० ६ : १६)
अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल और महा दोषों की राशि है। अतः निर्ग्रन्थ मुनि सब प्रकार के मैथुन-संसर्ग का वर्जन करते हैं-उनसे दूर रहते हैं। ३. नारीसु नोपगिज्झेज्जा इत्थी विप्पजहे अणगारे।
धम्मं च पेसलं नच्चा तत्थ ठवेज्ज भिक्खू अप्पाणं ।। (उ० ८ : १६) __ स्त्रियों को त्यागनेवाला अनगार उनमें आसक्त न हो। धर्म को मनोहर जानकर भिक्षु अपनी आत्मा को उसमें स्थापित करे। ४. न रूवलावण्णविलासहासं न जंपियं इंगियपेहियं वा। इत्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता दह्र ववस्से समणे तवस्सी।।
(उ० ३२ : १४)