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________________ ३१८ महावीर वाणी १२. लोभस्सेसो अणुफासो मन्ने अन्नयरामवि। जे सिया सन्निहीकामे गिही पव्वइए न से।। (द० ६ : १८) संग्रह करना लोभ का अनुस्पर्श है। जो किसी भी वस्तु के संग्रह की कामना करता है, वह गृहस्थ है, साधु नहीं। ऐसा मैं मानता हूँ। १३. सन्निहिं च न कुब्वेज्जा लेवमायाए संजए। पक्खी पत्तं समादाय निरवेक्खो परिव्वए।। (उ० ६ : १५) संयमी मनि लेप मात्र भी संचय न करे। पक्षी की भाँति दूसरे दिन का ध्यान न रखते हुए पात्र लेकर भिक्षा के लिए पर्यटन करे। ३. ब्रह्मचर्य-समाधि १. अबंभचरियं घोरं पमायं दुरहिट्ठियं । नायरंति मुणी लोए भेयाययणवज्जिणो।। (द० ६ : १५) चरित्र को भंग करनेवाली बातों का वर्जन करनेवाला-उनसे सदा सशंक रहने वाला-मुनि इस लोक में प्रमाद के घर, घोर दुष्परिणाम वाले और असेव्य अब्रह्मर्य का सेवन नहीं करते। २. मूलमेयमहम्मस्स महादोससमुस्सयं । तम्हा मेहुणसंसग्गिं निग्गंथा वज्जयंति णं।। (द० ६ : १६) अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल और महा दोषों की राशि है। अतः निर्ग्रन्थ मुनि सब प्रकार के मैथुन-संसर्ग का वर्जन करते हैं-उनसे दूर रहते हैं। ३. नारीसु नोपगिज्झेज्जा इत्थी विप्पजहे अणगारे। धम्मं च पेसलं नच्चा तत्थ ठवेज्ज भिक्खू अप्पाणं ।। (उ० ८ : १६) __ स्त्रियों को त्यागनेवाला अनगार उनमें आसक्त न हो। धर्म को मनोहर जानकर भिक्षु अपनी आत्मा को उसमें स्थापित करे। ४. न रूवलावण्णविलासहासं न जंपियं इंगियपेहियं वा। इत्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता दह्र ववस्से समणे तवस्सी।। (उ० ३२ : १४)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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