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________________ ३६. श्रमण- - शिक्षा बुद्ध पुरुष अधिक क्या अपने शरीर पर भी ममत्वभाव नहीं रखते । ७. परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो । विज्जदि जदि सो सिद्धिं ण लहदि सव्वागमधरोवि ।। (प्र० सा० ३ : ३६) जिस पुरुष का शरीर आदि में एक परमाणु के बारबर भी ममत्व है वह समस्त आगमों का जाननेवाला होने पर भी मुक्ति को प्राप्त नहीं करता । ८. किं किंचणत्ति तक्कं अपुणब्भवकामिणोध देहोवि । जिणवरिंदा णिप्पडिकम्मत्तमुद्दिट्ठा ।। संगोत्ति ३१७ (प्र० सा० ३ : २४) जिनवर भगवान् ने पुनर्जन्म को न चाहनेवाले मुमुक्षु को अपने शरीर के प्रति भी 'यह परिग्रह है' ऐसा मान कर उपेक्षा करने का ही उपदेश किया है ऐसी स्थिति में यह विचार होता है कि क्या कुछ परिग्रह है ? ६. णिस्संगो चेव सदा कसायल्लेहणं कुणदि भिक्खू । संगा हु उदीरंति कसाए अग्गीव कठ्ठाणि । । [ २ ] ११. सन्निहिं च न कुव्वेजजा अणुमायं पि संजए । मुहाजीवी असंबद्धे हवेज्ज जगनिस्सिए । । (भग० आ० ११७५) जो परिग्रह - रहित है वही भिक्षु सदा अपने कषाय को क्षीण कर सकता है। जो परिग्रही है, उसकी कषायें वैसे ही उद्दीप्त होती रहती है जैसे काष्ठ से अग्नि । १०. गंथच्चाओ इदियणिवारणे अंकुसो व हत्थिस्स । णयरस्स खाइया वि य इंदियगुत्ती असंगत्तं ।। (भग० आ० ११६८ ) जिस प्रकार हाथी के नियंत्रण के लिए अंकुश होता है, उसी प्रकार इन्द्रियों के नियंत्रण के लिए अपरिग्रह है जिस प्रकार नगर की रक्षा के लिए खाई जाती है, उसी प्रकार इन्द्रिय- गुप्ति के लिए अपरिग्रह है । (द०८:२४) संयमी मुनि अणुमात्र भी संग्रह न करे। वह मुधाजीवी, असंबद्ध और जगत् (लोगों) पर - आश्रित हो ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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