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________________ ३१६ महावीर वाणी २. अपरिग्रह और असंग्रह । [१] १. अभंतरबाहिरए सव्वे गंथे तुमं विवज्जेहि । कदकारिदाणुमोदेहिं कायमणवयणजोगेहिं।। (भग० आ० १११७) हे क्षपक ! तू संपूर्ण अभ्यन्तर और बाह्य परिग्रहों का मन, वचन और काया से तथा कृत, कारित और अनुमोदन से त्याग कर। २. मिच्छत्तवेदरागा तहेव हासादिया य छद्दोसा। चत्तारि तह कसाया चउदस अब्भतरा गंथा।। (भग० आ० १११८) मिथ्यात्व, तीन वेव (स्त्री वेद, पुरुष वेद नपुंसक वेद), छः दोष (हास्य, रति, अरति, शोच, भय, जुगुप्सा) और चार कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) ये चौदह अभ्यन्तर परिग्रह हैं। ३. बाहिरसंगा खेत्तं वत्थं धणधण्णकुप्पभंडाणि। दुपयचउप्पय जाणामि चेव सयणासणे य तहा।। (भग० आ० १११६) क्षेत्र वास्तु, धन, धान्य, कुप्य-भांड, द्विपद, चतुष्पद, यान, शयन और आसन-ये दस बाह्य परिग्रह हैं। ४. लूहवित्ती सुसंतुढे . अप्पिच्छे सुहरे सिया। आसुरत्तं न गच्छेज्जा सोच्चाणं जिणसासणं ।। (द० ८ : २५) भिक्षु, रूक्षवृत्ति, सुसंतुष्ट, अल्प इच्छावाला और थोड़े आहार से तृप्त होनेवाला हो। जिन-शासन को सुनकर वह कभी असुरवृत्ति को धारण न करे-क्रद्ध न हो। ५. ण य होदि संजदो वत्थमित्तचागेण सेससंगेहिं। तह्मा आचेलक्कं चाओ सव्वेसि होइ संगाणं ।। (भग०. आ० ११२४) यदि अन्य सारे परग्रिह हैं तो केवल वस्त्र मात्र के त्याग से कोई संयती नहीं होता। अतः सभी परिग्रह का त्याग ही अचेलकत्व है। - ६. अवि अप्पणो वि देहम्मि नायरंति ममाइयं । (द० ६ : २१)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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