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३६. श्रमण-शिक्षा १२. एवमेयाणि जाणित्ता सव्वभावेण संजए।
अप्पमत्तो जए निच्चं सव्विंदियसमाहिए।। (द० ८ : १६)
साधु इस प्रकार पूर्वोक्त आठ प्रकार के सूक्ष्म जीवों को जानकर सर्व इन्द्रियों का दमन करता हुआ एवं प्रमादरहित होकर हमेशा सर्व भावों से-तीन करण तीन योग से-इनकी यतना करे। १३. तण्हाछुहादिपरिदाविदो वि जीवाण घदणं किच्चा।
पयिारं काढुंजे मा तं चिंतेसु लभसु सदिं । ।(भग० आ० ७७८)
तृषा, क्षुधा आदि से पीड़ित होने पर भी जीवों का घात कर तृषा आदि को शान्त करने का विचार मन में भी मत ला। ऐसे दुःख के अवसर पर आगम का स्मरण कर। १४. रदिअरदिहरिसभयउस्सुगत्तदीणत्तणादिजुत्तो वि।
भोगपरिभोगहेतुं मा हि विचिंतेहि जीववहं ।। (भग० आ० ७७६)
रति, अरति, हास्य, भय, उत्सुकता, दीनत्व आदि भाव आत्मा में उत्पन्न होने पर भी भोगोपभोग के लिए तू जीव-वध का विचार मन में भी मत कर। १५. जहा दुमस्स पुप्फेसु भमरो आवियइ रसं।
न य पुप्फं किलामेइ सो य पीणेइ अप्पयं ।। (द० १ : २)
जिस प्रकार भ्रम द्रुम-पुष्पों से थोड़ा रस पीता है-किसी पुष्प को म्लान नहीं करता और अपने को भी तृप्त करता है वैसे श्री श्रमण अनेक घरों से सहज उत्पन्न आहार बिना किसी को खिन्न किये थोड़ा-थोड़ा ग्रहण कर जीवन चलता है।) १६. वयं च वित्तिं लब्भामो न य कोइ उवहम्मई।
अहागडेसु रीयंति पुप्फेसु भमरा जहा।। (द० १ : ४)
(भिक्षु की प्रतिज्ञा होती है)-"हम इस तरह से वृत्ति-भिक्षा प्राप्त करेंगे कि किसी जीव का उपहनन न हो।" श्रमण यथाकृत-गृहस्थ के यहाँ सहज रूप से बना आहार लेते हैं, जैसे भ्रमर पुष्पों से रस। १७. एइंदियादिपाणा पंचविधावज्जभीरुणा सम्मं ।
ते खलु ण हिंसिदव्वा मणवचिकायेण सव्वत्थ ।। (मू० २८६)
पाँच प्रकार के पापों से डरनेवाले पुरुष को सम्यक् आचरण करते हुए सर्वत्र एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय प्राणियों को कभी भी हिंसा नहीं करनी चाहिए । यही अहिंसा महाव्रत है।