SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ : ३६ : श्रमण-शिक्षा १. अहिंसा और माधुकरी वृत्ति [ १ ] अदुव थावरा । णो वि घायए ।। १. जावंति लोए पाणा तसा ते जाणमजाणं वा न हणे (द० ६ : ६) इस लोक में जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, निर्ग्रन्थ उन्हें जान या अजान में न मारे न मरवाए। २. सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउं न मरिज्जिउं । तम्हा पाणवहं घोरं निग्गथा वज्जयंति णं । । (द० ६ : १० ) सभी जीव जीने की इच्छा करते हैं, कोई मरना नहीं चाहता। अतः निर्ग्रन्थ निर्दय प्राण- वध का सर्वथा त्याग करते हैं । ३. पुढवि दग अगणि मारुय तणरुक्ख सबीयगा । तसा य पाणा जीव त्ति इइ वृत्तं महेसिणा । । (द०८ : २) पृथ्वी, अप्– जल, अग्नि, वायु, बीजं सहित तृण और वृक्ष तथा त्रस प्राणी- ये जीव हैं, ऐसा महर्षि ने कहा है । (५०६ : ३) भिक्षु को मन, वचन और काया से इनके प्रति सदा अहिंसक होना चाहिए। इसी प्रकार अहिंसक रहनेवाला संयत होता है। ४. तेसिं अच्छणजोएण निच्चं होयव्वयं सिया । मणसा कायवक्केण एवं भवइ संजए । । ५. पुढविकायं न हिंसति मणसा वयसा कायसा । तिविहेण करणजोएण संजया सुसमाहिया । । (द० ६ : २६) सुसमाहित संयमी मन, वचन और काया रूप तीनों योगों से तथा कृत; कारित और अनुमोदनरूप तीनों करण से पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, और त्रसकाय की हिंसा नहीं करते।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy