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श्रमण-शिक्षा
१. अहिंसा और माधुकरी वृत्ति
[ १ ]
अदुव थावरा । णो वि घायए ।।
१. जावंति लोए पाणा तसा ते जाणमजाणं वा न हणे
(द० ६ : ६)
इस लोक में जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, निर्ग्रन्थ उन्हें जान या अजान
में न मारे न मरवाए।
२. सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउं न मरिज्जिउं ।
तम्हा पाणवहं घोरं निग्गथा वज्जयंति णं । ।
(द० ६ : १० )
सभी जीव जीने की इच्छा करते हैं, कोई मरना नहीं चाहता। अतः निर्ग्रन्थ निर्दय प्राण- वध का सर्वथा त्याग करते हैं ।
३. पुढवि दग अगणि मारुय तणरुक्ख सबीयगा ।
तसा य पाणा जीव त्ति इइ वृत्तं महेसिणा । ।
(द०८ : २)
पृथ्वी, अप्– जल, अग्नि, वायु, बीजं सहित तृण और वृक्ष तथा त्रस प्राणी- ये जीव हैं, ऐसा महर्षि ने कहा है ।
(५०६
: ३)
भिक्षु को मन, वचन और काया से इनके प्रति सदा अहिंसक होना चाहिए। इसी प्रकार अहिंसक रहनेवाला संयत होता है।
४. तेसिं अच्छणजोएण निच्चं होयव्वयं सिया ।
मणसा कायवक्केण एवं भवइ संजए । ।
५. पुढविकायं न हिंसति मणसा वयसा कायसा ।
तिविहेण करणजोएण संजया सुसमाहिया । ।
(द० ६ : २६) सुसमाहित संयमी मन, वचन और काया रूप तीनों योगों से तथा कृत; कारित और अनुमोदनरूप तीनों करण से पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, और त्रसकाय की हिंसा नहीं करते।