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________________ महावीर वाणी कोई जीवनपर्यन्त नहीं नाश होनेवाले शाश्वत ऐश्वर्य के लिए निमंत्रित करे, तो भी मुनि उस देव- माया में विश्वास न करे। उसको अच्छी तरह समझ, वह सब प्रपंच का मुत्याग करे । ३१२ २५. सव्वट्ठेहिं अमुच्छिए आउकालस्स पारए । तितिक्खं परमं णच्चा विमोहण्णतरं हितं । । (आ० ८ (द) : २५) सव्र इनिद्रय विषयों में मूच्छित न होता हुआ, वह आयुष्य को पूर्ण करे। तितिक्षा को परम धर्म समझकर मोहरहित मरणों में से किसी एक को धारण करना, अत्यन्त हितकर है। २६. जह वाणियगा सागरजलम्मि णावाहिं रयणपुण्णहिं । पत्तणमासण्णा वि हु पमादमूढा वि वज्जंति । । सल्लेहणा विसुद्धा केइ तह चेव विवहसंगेहिं । संथारे विहरता वि किलिठ्ठा विवज्जंति ।। (भग०आ० १६७३-७४) जैसे वणिक् पत्तन (बन्दरगाह) के समीप पहुँकर भी प्रमादवश मूढ़ हो रत्नों से भरी हुई नौका के साथ डूब मरते हैं वैसे ही विशुद्ध सल्लेखनापूर्वक संस्तारक पर आरूढ़ होने पर भी कई राग-द्वेष आदि विविध भाव-परिग्रह द्वारा संक्लिष्ट परिणामों से युक्त होते हुए विनाश को प्राप्त होते हैं।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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