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________________ ३५. मरण-समाधि ३११ अनुपम मरण में आसीन मुनि इन्द्रियों को विषयों से हटावे, घुनवाले पाटे के प्राप्त होने पर अन्य जीवरहित पाटे की गवेषणा करे। . १८. जओ बज्जं समुप्पज्जे ण तत्थ अवलंबए। ततो उक्कसे अप्पाणं सव्वे फासेहियासए।। (आ० ८ (८) : १८) जिससे पाप की उत्पत्ति हो, उसका अवलम्बन न करे। पाप-कार्यों से बच अपनी आत्मा का उत्कन करे। परीषहों से स्पृष्ट होने पर उन्हें सहन करे। १६. अयं चायततरे सिया जो एवं अणुपालए। सव्वगायणिरोधेवि ठाणातो ण विउममे ।। (आ० ८ (E) : १६) अब आगे कहा जानेवाला पादोपगमन मरण इंगित-मरण से भी बढ़कर है। जो इसका पालन करता है, वह सारे अंगों के जकड़ जाने पर भी अपने स्थान से किंचित्मात्र भी नहीं हटता। २०. अयं से उत्तमे धम्मे पुव्वट्ठाणस्स पग्गहे। अचिरं पडिलेहित्ता विहरे चिट्ठ माहणे।। (आ० ८ (८) : २०) । यह आत्मधर्म पादापगमन-मरण पूर्व-कथित मरणों से भी विशेष रूप से ग्राह्य है। प्रासुक भूमि को देखकर माहन-मुनि, वहीं रह पादोपगमन मरण का पालन करे। २१. अचित्तं तु समासज्ज ठावए तत्थ अप्पगं। बोसिरे सव्वसो कायं ण मे देहे परीसहा।। (आ० ८ (८) : २१) अचित्त स्थान को प्राप्त कर वहाँ अपने-आपको स्थित करे। काया को सर्वशः व्युतसर्ग करे और परीषहों के आने पर सोचे-मेरे शरीर में परीषह नहीं हैं। २२. यावज्जीवं परीसहा उवसग्गा य संखाय। संवुडे देहभेयाए इति पण्णेहियासए।। (आ० ८ (८) : २२) जब तक यह जीवन है तब तक ये परीषह और उपसर्ग हैं, ऐसा जानकर-देहभेद के लिए संवृत, प्राज्ञ उनको समभाव से सहन करे। २३. भेउरेसु न रज्जेज्जा कामेसु बहुतरेसु वि। इच्छा-लोभं न सेवेज्जा सुहुमं वण्णं सपेहिया ।। (आ० ८ (८) : २३) वह नश्वर विपुल कामभोगों में रंजित न हो। सूक्ष्म-वर्ण-मोक्ष की ओर दृष्टि रख, वह इच्छा और लोभ का सेवन न करे। २४. सासएहिं णिमंतेज्जा दिव्वं मायं ण सद्दहे। तं पडिबुज्झ माहणे सव्वं नूमं विधूणिया।। (आ० ८ (८) : २४)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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