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________________ ३१० . महावीर वाणी जीव-जन्तु देह की हिंसा करते हों, तब भी मुनि उस स्थान से अन्यत्र न जावे। हिंसा आदि आस्रवों से दूर रहकर तुष्ट हृदय से कष्टों को सहन करे। ११. गंथेहिं विवित्तेहिं आउकालस्स पारए। ____पग्गहियतरगं चेय दवियस्स वियाणतो।। (आ० ८ (८) : ११). बाह्य और अभ्यन्तर ग्रंथियों से दूर रहकर समाधिपूर्वक आयुष्य को पूरा करे। गीतार्थ संयमी के लिए यह दूसरा इंगित-मरण विशेष ग्राह्य है। १२. अयं से अवरे धम्मे णायपुत्तेण साहिए। आयवज्जं पडीयारं विजहिज्जा तिहा तिहा।। (आ० ८ (८) : १२) ज्ञातपुत्र के द्वारा अच्छी तरह कहा गया दूसरा इंगति-मरण धर्म है, इसमें खुद को छोड़ अन्य से प्रतिचार (सेवा) कराने का त्रियोग से त्याग करे। .. १३. हरिएसु ण णिवज्जेज्जा थंडिलं मुणिआ सए। विउसिज्ज अणाहारो पुट्ठो तत्थहियासए।। (आ० ८ (८) : १३) मुनि हरित-दूर्वादियुक्त भूमि आदि पर न सोए भूमि को प्राशुक जानकर सोए। शरीर का व्युत्सर्ग कर अनशन करे। वहाँ उपसर्गों से स्पृष्ट होने पर उन्हें सहन करे। १४. इंदिएहि गिलायंते समियं साहरे मुणी। . तहावि से अगरिहे अचले जे समाहिए।। (आ० ८ (८) : १४) (निराहार के कारण) इन्द्रियों के ग्लान होने पर मुनि चित्त के स्थैर्य को रखे ।इंगितमरण में अपने स्थान में हलन-चलन आदि करता हुआ वह निंद्य नहीं होता, यदि वह भावना में अचल और समाहित होता है। १५. अभिक्कमे पडिक्कमे संकुचए पसारए। कायसाहारणट्ठाए एत्थ वावि अचेयणे।। (आ० ८ (८) : १५) इंगित-मरण में मुनि काया को सहारा देने के लिए चंक्रमण करे, टहले, अंगोपांगों को संकुचित करे, प्रसारित करे अथवा इसमें भी अचतेन-जड़वत् निश्चल रहे। १६. परक्कमे परिकिलंते अदुवा चिट्टे अहायते। ___ ठाणेण परिकिलंते णिसीएज्जा य अंतसो।। (आ० ८ (८) : १६) परिक्लान्त होने पर वह टहले अथवा यथावत् खड़ा रहे। यदि खड़ा रहने से परिक्लान्त हो तो वह अन्त में पुनः बैठे। १७. आसीणे णेलिसं मरणं इंदियाणि समीरए। कोलवासं समासज्ज वितहं पाउरेसए।। (आ० ८ (८) : १७)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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