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३५. मरण- समाधि
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वह कषायों को प्रतनु - क्षीण कर अल्पाहार करता हुआ रहे तथा तितिक्षा भाव रखे। जब भिक्षु ग्लान हो तो वह आहार के समीप न जाय - उसका सर्वथा त्याग कर दे । ४. जीवियं णाभिकंखेज्जा मरणं णोवि पत्थए ।
दुहतोवि ण सज्जेज्जा जीविते मरणे तहा ।।
(आ० ८ ( ८ ) : ४)
वह जीने की आकांक्षा न करे और न मरने की ही कामना करे। वह जीवन और मृत्यु दोनों में ही आसक्त न हो ।
५. मज्झत्थो णिज्जरापेही समाहिमणुपालए ।
अंतो बहिं विउसिज्ज अज्झत्थं सुद्धमेसए ||
(आ० ८ (८) : ५)
वह समभाव में स्थित हो, निर्जरा की अपेक्षा रखता हुआ समाधि का पालन करे। अभ्यन्तर और बाह्य ममत्व का त्याग कर वह विशुद्ध अध्यात्म का अन्वेषण करे ।
६. जं किंचुवक्कमं जाणे आउक्खेमस्स अप्पणो । तस्सेव अंतरद्धाए खिप्पं सिक्खेज्ज पंडिए । ।
यदि अपने आयु-क्षेम में किंचित् भी विघ्न मालूम दे तो पंडित साधक शीघ्र ही भक्त-परिज्ञा आदि को ग्रहण करे ।
७. गामे वा अदुवा रणे थंडिलं पडिलेहिया । अप्पपाणं तु विण्णाय तणाइं संथरे मुणी ।।
(आ० ८ (८) : ७)
ग्राम अथवा अरण्य में प्रासुक भूमि का प्रतिलेखन कर प्राणि-रहित जगह जान कर मुनि तृण बिछावे ।
८. अण्णाहारो तुअट्टेज्जा पुट्ठो तत्थ्हयासए । णातिवेलं उवचरे माणुस्सेहिं विपुट्ठओ ।।
(आ० ८ ( ८ ) : ६)
उसके अंतर काल में
(आ० ८ (८) : ८)
आहार का त्याग कर तृणों पर शयन करे, वहाँ परीषहों से स्पृष्ट होने पर उन्हें सहन करे और मानुषिक उपसर्गो से स्पृष्ट होने पर मर्यादा का उलंघन न करे ।
६. संसप्पगा य जे पाणा जे य उड्ढमहेचरा । भुंजंति मंससोणियं ण छणे ण पमज्जए ।।
(आ० ८ ( ८ ) : १)
सरीसृप, ऊर्ध्वचर अथवा अधःचर प्राणी मांस को नोचें अथवा शोणित का पान
करें। तो उनको न मारे और न उन्हें दूर करे।
१०. पाणा देहं विहिंसंति ठाणाओ ण विउब्भमे । आसवेहिं विवित्तहिं तिप्पमाणेऽहियासए । ।
(आ० ८ ( ८ ) : १०)