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________________ ३०८ महावीर वाणी ११. अच्छिणिमिसेणमेत्तो आहारसुहस्स सो हवइ कालो। गिद्धीए गिलइ वेगं गिद्धीए विणा ण होइ सुखं ।। (भग० आ० १६६२) आहार के रसानुभाव से जो सुख मिलता है उसकी अवधि आँख के निमेष मात्र है। जीव गृद्धिवश आहार को शीघ्रता से निगल जाता है। गृद्धि बिगना इन्द्रिय-सुख नहीं होता। १२. किं पुण कंठप्पाणो आहारेदूण अज्जमाहारं। लभिहिसि तित्तिं पाऊणुदधिं हिमलेहणेणेव।। (भग० आ० १६५८) यदि कोई मनुष्य समुद्र को पीकर भी तृप्त नहीं हुआ तो क्या यह एकाध हिमबिंदु का आस्वादन कर तृप्त होगा? वैसे ही हे मनुष्य ! तू आज तक तृप्त नहीं हुआ तब आज जब तेरे प्राण कंठ में आ चुके हैं तब आहार ग्रहण कर अपनी तृप्ति कर सकेगा? १३. पुणरवि तहेव तं संसारं किं भमिदुमिच्छसि अणंतं। जं णाम ण वोच्छिज्जइ अज्जवि आहारसण्णा ते।। (भग० आ० १६५२) हे मनुष्य ! तू अब भी आहाराभिलाषा को नहीं छोड़ता तब क्या तू पुनः उस अनन्त संसार में भ्रमण करना चाहती है ? ५. तीन पण्डित-मरण १. आणुपुवी.विमोहाइं जाइं धीरा समासज्ज। वसुमंतो मइमंतो सव्वं नच्चा अणेलिस।। (आ० ८ (८) : १) संयमी, प्राज्ञ और धीर पुरुष अनुपूर्वी से (साधना करता हुआ) सभी अनुपम धार्मीक मरणों को जान, मोहरहित मरणों में से (शक्ति अनुसार) किसी एक का अपना (समाधिमरण करे)। २. दुविंह पि विदित्ताणं बुद्धा धम्मस्स पारगा। अणुपुवीए संखाए आरंभाओ तिउट्टति।। (आ० ८ (८) : २) धर्म के पारगामी बुद्ध पंडित और अपंडित द्विविध मरणों को समझ, यथाक्रम से संयम का पालन करते हुए मृत्यु के समय को जान आरम्भों से निवृत्त होते हैं। ३. कसाए पयणुए किच्चा अप्पाहारो तितिक्खए। अह भिक्खू गिलाएज्जा आहारस्सेव अंतियं ।। (आ० ८ (८) : ३)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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