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________________ ३०७ ३५. मरण-समाधि ५. जह इंधणेहिं अग्गी जह य समद्दो णदीसहस्सेहिं। ___ आहारेण ण सक्को तह तिप्पेईं इमो जीवो।। (भग० आ० १६५४) जैसे ईंधनों से अग्नि और सहस्रों नदियों से समुद्र तृप्त नहीं होता, वैसे ही यह जीव भी आहार से कभी भी तृप्त नहीं होता है। ६. उधुदमणस्स ण रदी विणा रदीए कुदो हवदि पीदी। पीदीए विणा ण सुहं उधुदचित्तस्स घण्णस्स!! (भग० आ० १६५६) आहार के विषय में जिसका मन चंचल रहता है, उसे रति की प्राप्ति नहीं होती। बिना रति के प्रीति कैसे हो सकती है ? और प्रीति के बिना आहार-लंपट पुरुष को सुख नहीं होगा। ७. सव्वाहारविधाणेहिं तुमे ते सव्वपुग्गला बहुसो। आहारिदा अदीदे काले तित्तिं च सि ण पत्तो।। (भग० आ० १६५७) हे मनुष्य ! अतीत काल में तूने सर्व पुद्गलों का सर्व प्रकार के आहार के रूप में बहुत बार भक्षण किया है तो भी तृप्ति नहीं हुई। - ८. को एत्थ विभओ दे बहुसो आहारभुत्तपुवम्मि। जुज्जेज्ज हु अभिलासो अभुत्तपुव्वम्मि आहारे।। (भग० आ० १६५६) कभी जिसका भक्षण नहीं किया उस वस्तु में तो जीव की अभिलाषा हो सकती है, लेकिन जो आहार पूर्वकाल में अनेक बार भक्षण किया है, उसमें तुम्हारे लिए कौतूहल की क्या बात है ? ६. आवादमेत्तसोक्खो आहारेण हु सुखं बहुं अत्थि। दुःखं चेवत्थ बहुं आहटेंतस्स गिद्धीए।। (भग० आ० १६६०) जिता के अग्र-भाग पर आहार होता है, उतनी ही देर सुखानुभव होता है। वह सुख भी अत्यल्प है। गृद्धिपूर्वक आहार करने से दुःख ही अधिक होता है। १०. जिब्भामूलं बोलेइ वेगदो वरहओव्व आहारो। तत्थेव रसं जाणइ ण य परदो ण वि य से परदो।। . (भग० आ० १६६१) जैसे उत्तम घोड़ा वेग से दौड़ता है वैसे ही आहार भी जिहा के अग्र-भाग का उल्लंघन कर शीघ्र ही पेट में प्रवेश करता है जिह का अग्र-भाग ही आहार के रस को जानता है उसके बाद का जिहा का भाग अथवा कण्ठादि भाग स्वाद को नहीं जानते।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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