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________________ ३०६ ५. सव्वं अधियासंतो उवसग्गविधिं परीसहविधिं च । णिस्संगदाए सल्लिह असंकिलेसेण त मोहं । । (भग० आ० १६७१) सर्व प्रकार के उपसर्ग और परीषहों को समभाव से सहते हुए निःसंगत्व की भावना से और संक्लेश-रहित परिणामों से तू मोह को क्षीण कर । ४. आहार उपेक्षा १. आहारत्थं हिंसइ भणइ असच्चं करेइ तेणक्कं । रूसइ लुब्भइ मायां करेइ परिगिण्हदि य संगे ।। (भग० आ० १६४२) महावीर वाणी आहार के लिए मनुष्य हिंसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, लोभ करता है, माया करता है और परिग्रह ग्रहण करता है। २. होइ णरो णिल्लज्जो पयहइ तवणाणदंसणचरितं । आमिसकंलिणा ठइओ छायं मइलेइ य कुलस्स ।। (भग० आ० १६४३) आहार के लिए मनुष्य निर्लज्ज हो जाता है। तप, ज्ञान, दर्शन और चारित्र को छोड़ देता है और आहार - संज्ञारूपी पाप के वश होकर कुल की शोभा को मलिन करता है। ३. णासदि बुद्धी जिब्भावसस्स मंदा वि होदि तिक्खा वि । जोणिगसिलेसलग्गो व होइ पुरिसो अणप्पवसो । । ४. आहारत्थं काऊण पावकम्माणि तं परिगओ सि । दुक्खसहस्साणि संसारमणादीयं पावतो ।। (भग० आ० १६४४) जो मनुष्य जिहा के वश होता है, उसकी बुद्धि नाश को प्राप्त होती है उसकी तीक्ष्णबुद्धि भी मंद हो जाती है। यह वज्रलेप के बंधन से बँधे हुए पुरुष की तरह बिल्कुल परवश हो जाता है। (भग० आ० १६५१) हे मनुष्य ! आहार में गृद्ध होकर तूने अनेक पाप कर्म कर अनादि संसार में सहस्रों दुखों को प्राप्त करते हुए भ्रमण किया है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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