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३५. मरण- समाधि
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मैं ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् लोक में अनेक बार बाल-मरण किए हैं, अब सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक पण्डित-मरण से मरण प्राप्त करूँगा । ६. उव्वेयमरणजादीमरणं णिरएसु वेदणाओ य । एदाणि संमरंतो पंडियमरणं अणुमरिस्से ||
(मूल० २ : ७६)
उद्वेगमरण, जातिमरण तथा नरक में अनेक वेदनाएँ होती हैं। इन मरणों और वेदनाओं का स्मरण करता हुआ मैं पण्डित-मरण से मरण को प्राप्त होऊँगा ।
३. शरीर - आसक्ति त्याग
१. जावंति किंचि दुक्खं सारीरे माणसं च संसारे ।
पत्तो अनंतखुत्तं कायस्स ममत्तिदोसेण ।। (भग० आ० १६६७ ) इस अनादि संसार में अनंत बार जो शारीरिक अथवा मानसिक दुःख तुझे प्राप्त हुए हैं, वे सब शरीर के प्रति ममत्वदोष से ही प्राप्त हुए हैं।
२. एण्हं पि जदि ममत्तिं कुणसि सरीरे तहेव ताणि तुमं । दुक्खाणि संसरंतो पाविहसि
अणंतयं
कालं । ।
(भग० आ० १६६८)
यदि इस समय भी, जब अन्त समीप है, तू शरीर में ममत्त्व करेगा तो तू पुनः अनन्त काल तक संसार में उन्हीं दुःखों को प्राप्त करेगा ।
३. णत्थि भयं मरणसमं जम्मणसमयं ण विज्जजदे दुक्खं । जम्मणमरणादंकं छिंदि ममत्तिं सरीरादो ।।' (मू० ११६)
इस जगत् में मृत्यु के समान कोई भय नहीं है। भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म के समान कोई दूसरा दुःख नहीं है। तू जन्म और मरण दोनों का अन्त कर। ये दोनों जन्म-मरण रूपी आतंक शरीर के होने से होते हैं अतः शरीर से ममत्व का छेदन कर ।
४. अण्णं इमं सरीरं अण्णे जीवोत्ति णिच्छिदमदीओ । दुक्खभयकिलेसयरी मा हु ममत्तिं कुण सरीरे ।।
१. भग० आ० ११६६ ।
( भग० आ० १६७० )
यह शरीर भिन्न है और जीव भिन्न है, ऐसा निश्चयपूर्वक समझकर दुःख, भय और क्लेश को उत्पन्न करने वाली शरीर - ममता को मत करे