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________________ ३५. मरण-समाधि ३०३ तथा जो संवृतात्मा भिक्षु है, वह दोनों में से एक गति को पाता है-या तो वह सर्व दुःख क्षय हो गये हैं जिसके ऐसा सिद्ध होता है अथवा महाऋद्धि वाला देव होता हैं। १३. ताणि ठाणाणि गच्छंति सिक्खित्ता संजमं तवं। भिक्खाए वा गिहत्थे वा जे संपरिनिव्वुडा।। (उ० ५ : २८) संयम और तप के अभ्यास द्वारा जो वासना से परिनिवृत्त हैं, वे भिक्षु हों या गृहस्थ, दिव्य देवगति को जाते हैं। १४. तेसिं सोच्चा सपुज्जाणं संजयाण दुसीमओ। न संतसंति मरणंते सीलवंता बहुस्सुया।। (उ० ५ : २६) उन सत्पूज्य जितेन्द्रिय संयमियों की मनोहर गति को सुनकर, शील-सम्पन्न और बहुश्रुत पुरुष मरणान्त के समय संत्रस्त नहीं होते। १५. तुलिया विसेसमादाय दया-धम्मस्स खंतिए। विप्पसीएज्ज मेहावी तहाभूएण अप्पणा।। (उ० ५ : ३०) अकाम और सकाम-इन दोनों मरणों को तोल, विवेकशील पुरुष सकाम-मरण को ग्रहण करे । क्षमा द्वारा दया-धर्म का प्रकाश कर मेधावी तथाभूत आत्मा से अपनी आत्मा को प्रसन्न करे। १६. तओ काले अभिप्पेए सड्ढी तांलिसमंतिए। विणएज्ज लोमहरिसं भेयं देहस्स कंखए।। (उ० ५ : ३१) बाद में श्रद्धावान पुरुष काल-अवसर-आने पर गुरुजनों के समीप, रोमांचकारी मृत्यु-भय को दूर कर देह-भेद की चाह करे। १७. अह कालंमि संपत्ते आघायाय समुस्सयं । सकाम-मरणं मरई तिण्हमन्नयरं मुणी।। (उ० ५ : ३१) काल के उपस्थित होने पर, संलेखना आदि के द्वारा शरीर का त्याग करता हुआ साधु पण्डित-मरण के तीन प्रकारों में से किसी एक के द्वारा सकाम-मृत्यु को प्राप्त करता हैं। २. बाल-मरण : पण्डित-मरण १. वीरेण वि मरिदलं णिवीरेण वि अवस्स मरिदव्वं। जदि दोहिं वि मरिदव्वं वरं हि वीरत्तणेण मरिद ।। (मू० २ : ६६)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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