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महावीर वाणी
फिर वह मूर्ख जीव आतंक-रोग-से स्पृष्ट होने पर पीड़ित हो परिताप करता है तथा अपने कर्मों को देखता हुआ परलोक से भयभीत होता है। ७. सुया मे नरए ठाणा असीलाणं च जा गई।
बालाणं कर-कम्माणं पगाढा जत्थ वेयणा।। (उ० ५ : १२) तओ से मरणंतंमि बाले संतस्सई भया। अकाम-मरणं मरई धुत्ते व कलिना जिए।। (उ० ५ : १८)
'शील-रहित क्रूरकर्म करने वाले मूर्ख मनुष्यों की जो गति होती है, वह मैंने सुनी है। उन्हें नरक में स्थान मिलता है, जहाँ प्रगाढ़ वेदना है'-मरणान्त के समय मूर्ख मनुष्य इसी तरह भय से संत्रस्त होता है और आखिर एक ही दाँव में हार जानेवाले जुआरी की तरह, अकाम-मरण से डरता है। ८. मरणं पि सपुण्णाणं जहा मेयमणुस्सुयं ।
विप्पसण्णमणाघायं संजयाणं वसीमओ।। (उ० ५ : १८)
बाल (मूर्ख) जीवों के अकाम-मरण को मुझसे सुना है, उसी तरह पुण्यवान और जितेन्द्रिय संयमियों के प्रसन्न और आघात-रहित सकाम-मरण को भी सुनो। ६. न इमं सव्वेस भिक्खू सु न इमं सव्वेसुऽगारिसु।
नाणासीला अगारत्था विसमसीला य भिक्खुणो।। (उ० ५ : १६)
यह सकाम-मरण न सब भिक्षुओं को प्राप्त होता है और न सब गृहस्थों को; क्योंकि गृहस्थ नाना (विविध) शीलवाले होते हैं और भिक्षु विषमशील-असमान गुणोंवाले होते हैं। १०. अगारि-सामाइयंगाइं सड़ढी काएण फासए।
पोसहं दुहओ पक्खं एगरायं न हावए ।। (उ० ५ : २३)
श्रद्धालु अगारी-गृहस्थ सामायिक के अंगों का काया से सम्यक रूप से पालन करे। दोनों पक्षों में किये जानेवाले पौषध को एक रात को भी' बाद न दे। ११. एवं सिक्खा-समावन्ने गिहवासे वि सव्वए। ___ मुच्चई छविपव्वओ गच्छे जक्खसलोगयं ।। (उ० ५ : २४)
इस प्रकार शिक्षायुक्त सुव्रती गृहवास करता हुआ भी हाड़-मांस के इस शरीर को छोड़ पक्षलोक (देवलोक) को जाता है। १२. अह जे संवुडे भिक्खू दोण्हं अन्नयरे सिया।
सव्वदुक्खप्पहीणे वा देवे वावि महिड्ढिए।। (उ० ५ : २५)
१. अमावस्था और पूर्णिमा में से किसी भी दिन बाद न दे।