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(: ३५ :
मरण-समाधि
१. अकाम-मरण : सकाम-मरण १. संतिमे य दुवे ठाणा अक्खाया मारणंतिया।
अकाम-मरणं चेव सकाम-मरणं तहा।। (उ० ५ : २)
मरणान्त के ये दो स्थान कहे गये हैं-एक अकाम-मरण और दूसरा सकाम-मरण । २. बालाणं अकामं तु मरणं असई भवे।
पण्डियाणं सकामं तु उक्कोसेण सइं भवे।। (उ० ५ : ३)
बाल (मूों) के अकाम-मरण निश्चय ही बार-बार होता है; पण्डितों के सकाममरण उत्कर्षतः एक ही बार होता है। ३. हिंसे बाले मुसावाई माइल्ले पिसुणे सढे।
भुंजमाणे सुरं मंस सेयमेयं ति मन्नई।। (उ० ५ : ६)
हिंसा करने वाला, झूठ बोलनेवाला, छल-कपट करनेवाला, चुगली खानेवाला, शठता करनेवाला तथा मांस और मन्दिरा खाने-पीनेवाला बाल (मूर्ख) जीव-ये कार्य श्रेय हैं-ऐसा मानता है। ४. तओ से दण्डं समारभई तसेसु थावरेसु य।
अट्ठाए य अणट्ठाए भूयग्गामं विहिंसई।। (उ० ५ : ८)
फिर वह त्रस तथा स्थावर जीवों को कष्ट पहुँचाना शुरू करता है तथा प्रयोजन से या बिना प्रयोजन ही प्राणी-समूह की हिंसा करता है। ५. कायसा वयसा मत्ते वित्ते गिद्धे य इत्थिसु।
दुहओ मलं सचिणइ सिसुणागु ब्व मट्टियं ।। (उ० ५ : १०)
जो काया और वाचा से मत्त-अभिमानी है और कामिनि-कांचन में गृद्ध है, वह राग और द्वेष दोनों से उसी प्रकार कर्म-फल का संचय करता है, जिस तरह शिशुनाग (अलस) मुख और शरीर दोनों से मिट्टी का। ६. तओ पुट्ठो आयंकेणं गिलाणो परितप्पई।
पभीओ परलोगस्स कम्मणुप्पेह अप्पणो।। (उ० ५ : ११)