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३४. उपसर्ग और समाधि
३. देवलोगसमाणो उ परियाओ महेसिणं। - रयाणं अरयाणं तु महानिरयसारिसो।। (द० चू० १ : १०)
संयम में रत महर्षियों के लिए चरित्र-पर्याय देवलोक के समान (सुखकारक) होती है जिन्हें संयम में रति नहीं, उनके लिए वही चरित्र-पर्याय महानरक के सदृश कष्टदायक होती है। ४. धम्माउ भलै सिरिओ ववेयं जन्नग्गि विज्झायमिव प्पतेयं। हीलंति णं दुविहियं कुसीलं दादुद्धियं घोरविसं व नागं।।
(द० चू० १ : १२) जिस तरह अल्पतेज, बुझी हुई यज्ञाग्नि और उखड़े हुए दाढ़वाले घोर विषधर सर्प की हर कोई अवहेलना करते हैं, उसी तरह जो धर्म से भ्रष्ट और चरित्ररूपी लक्ष्मी से रहित होता है, उस साधु की दुष्ट और कुशील भी निन्दा करते हैं। ५. इहेवधम्मो अयसो अकित्ती दुन्नामधेज्जं च पिहज्जणम्मि। चुयस्स धम्माउ अहम्मसेविणो संभिन्नवित्तस्स य हेट्टओ गई।।
(द० चू० १ : १३) जो धर्म से च्युत होता है और अधर्म का सेवन करता है उसका इस लोक में साधारण लोगों में भी दुर्नाम होता है। वह अधर्मी कहीं भी जाकर अयश और अकीर्ति का पात्र बनता है। व्रत भंग करनेवाले की परलोक में अधम गति होती है। - ६. भुंजित्तु भोगाइ पसज्झ चेयसा तहाविहं कटु असंजमं बहुं। गई च गच्छे अणभिज्झियं दुहं बोही य से नो सुलभा पुणो पुणो।।
(द० चू० १ : १४). संयमभ्रष्ट मनुष्य दत्तचित्त से भोगों को भोगकर तथा अनेक प्रकार के असंयम का सेवन कर दुःखद अनिष्ट गति में जाता है। बार-बार जन्म-मरण करने पर भी उसे बोधि सुलभ नहीं होती। ७. इमस्स ता नेरइयस्स जंतुणो दुहोवणीयस्स किलेसवत्तिणो। पलिओवमं झिज्जइ सागरोवमं किमंग पुण मज्झ इमं मणोदुहं ? ||
(द० चू० १ : १५) नरक में गये हुए दुःख से पीड़ित और निरन्तर क्लेशवृत्ति वाले जीव की जब नरक सम्बन्धी पल्योपम और सागरोपम की आयु भी समाप्त हो जाती है तो फिर मेरा यह मनोदुःख तो कितने काल का है ?