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महावीर वाणी
यह माता-पिता आदि का स्नेह-सम्बन्ध, मनुष्यों के लिए उसी तरह दुस्तर है, जिस तरह अथाह समुद्र । इस स्नेह में मूच्छित-अ - आसक्त - शक्तिहीन पुरुष संसार में क्लेश भोगते हैं।
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११. तं च भिक्खू परिण्णाय सव्वे संगा महासवा ।
जीवियं णावकंखेज्जा सोच्चा धम्ममणुत्तरं ।। (सू० १, (३) २ : १३)
साधु ज्ञाति. संसर्ग को संसार का कारण जानकर छोड़ देवे। सर्व संग-सम्बन्धकर्मों के महान् प्रवेश द्वार हैं। सर्वोत्तम धर्म को सुनकर साधु असंयम जीवन की इच्छा. न करे ।
१२. अणुस्सुओ उरालेसु जयमाणो परिव्वए । चरियाए अप्पमत्तो पुट्ठो तत्थऽहियासए । ।
( सू० १, ६ : ३०)
उदार-मनोहर शब्दादि विषयों में उत्सुक - उत्कण्ठित न हो मुमुक्षु यत्नपूर्वक संयम मे रमण करे। धर्मचर्या में अप्रमादी हो और अनुकूल परीषहों से स्पृष्ट होने पर उन्हें दृढ़ता से सहन करे ।
१३. अह णं वतमाववण्णं फासा उच्चावया फुसे । ण तहिं विणिहणेज्जा वातेण व महागिरी । ।
(सू० १, ११ : ३७)
जिस तरह महागिरि वायु के झोंके से डोलायमान नहीं होता, उसी तरह व्रतप्रतिपन्न पुरुष सम-विषय, ऊँच-नीच, अनुकूल, प्रतिकूल परीषहों के स्पर्श करने पर धर्मच्युत नहीं होता है ।
४. चित्त-समाधि सूत्र
१. जया य चयई धम्मं अणज्जो भोगकारणा । से तत्थ मुच्छिए बाले आयइ नावबुज्झइ ।।
(द० चू १ : १)
जब अनार्य साधु भोग- लिप्सा से धर्म को छोड़ता है, उस समय काम-भोग में मूर्च्छित मूर्ख अपने भविष्य को नहीं समझता ।
२. जया य पूइमो होइ पच्छा होइ अपूइमो ।
राया व रज्जपब्भट्ठो स पच्छा परितप्पइ ||
(द० चू० १ : ४)
जब संयमी रहता है, तब साधु पूज्य होता है, किन्तु संयम से भ्रष्ट होने पर वह अपूज्य हो जाता है । राज्यच्युत राजा की तरह वह पीछे अनुताप करता है ।