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३४. उपसर्ग और समाधि
“हे मुनिवर ! बहुत काल से संयमपूर्वक विहार करते हुए आपको इस समय दोष कैसे लग सकता है ? इस प्रकार भोग भोगने का आमंत्रण देकर लोग साधु को उसी तरह फँसा लेते हैं जैसे चावल के दानों से सूअर को । ५. अचयंता व लूहेण उवहाणेण तज्जिया।
तत्थ मंदा विसीयंति पंकसि व जरग्गवा।। (सू० १, (३) २ : २१)
रूक्ष संयम पालन करने में असमर्थ और बाह्याभ्यन्तर तपस्या से भय पाते हुए मन्द पराक्रमी जीव संयम-मार्ग। में उसी प्रकार क्लेश पाते हैं, जिस प्रकार कीचड़ में बूढ़ा बैल। ६. तत्थ मंदा विसीयंति वाहच्छिण्णा व गद्दभा। पिट्ठओ परिसप्पंति पीढसप्पीव संभमे।। (सू० १, (३) २ : ५)
अनुकूल परीषह के उत्पन्न होने पर मन्द पराक्रमी मनुष्य भार से पीड़ित गधे की तरह खेद-खिन्न होते हैं। जैसे अग्नि के उपद्रव होने पर पृष्ठसी (लकड़ी के टुकड़ों के सहारे सरककर चलनेवाला) भागनेवालों के पीछे रह जाता है, उसी तरह मूर्ख भी संयमियों की श्रेणी से पीछे रह जाते हैं। ७. इच्चेव णं सुसेहंति कालुणीयउवट्ठिया।
विवद्धो णाइसंगेहिं तओऽगारं पहावइ ।। (सू० १, (३) २ : ६)
करुणा के भरे हुए बन्धु-बान्धव एवं राजादि साधु को उक्त रीति से शिक्षा देते हैं। पश्चात् उन ज्ञातियों के संग से बँधा हुआ पामर साधु प्रव्रज्या छोड़ घर की ओर दौड़ता है। ८. जहा रुक्खं वणे जायं मालुया पडिबंधइ।
एवं णं पडिबंधति णायओ असमाहिए।। (सू० १, (३) २ : १०)
जैसे वन में उत्पन्न वृक्ष को मालुका लता घेर लेती है, उसी तरह असमाधि उत्पन्न कर ज्ञातिवर्ग साधु को बाँध लेते हैं। ६. विबद्धो णाइसंगेहिं हत्थी वा वि णवग्गहे। पिट्ठओ परिसप्पंति सूती गो ब्व अदूरगा।। (सू० १, (३) २ : ११)
ज्ञातियों के स्नेह-पाश में बँधे हुए साधु की स्वजन उसी तरह चौकसी रखते हैं, जिस तरह नये पकड़े हुए हाथी की। जैसे नई ब्याई हुई गाय, अपने बछड़े से दूर नहीं हटती, उसी तरह परिवारवाले उसके पीछे-पीछे चलते हैं। १०. एए संगा मणुस्साणं पायाला व अतारिमा।
कीवा जत्थ य किस्संति णाइसंगेहि मुच्छिया।। (सू० १, (३) २ : १२)