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महावीर वाणी
इसी प्रकार कई श्रमण अपने को सुयम पालन करने में अबल समझकर तथा अनागत भय की आशंका से व्याकरण तथा ज्योतिष आदि की शरण लेते हैं।
१८. जे उ संगामकालम्मि णाया सूरपुरंगमा।
ण ते पिट्ठममुवेहिति किं परं मरणं सिया।। (सू० १, ३ (३) : ६) __ परन्तु जो पुरुष लड़ने में प्रसिद्ध और शूरों में अग्रगण्य होते हैं वे आगे की बात पर ध्यान नहीं देते हैं। वे समझते हैं कि मरण से अधिक और क्या होगा? १६. संखाय पेसलं धम्मं दिट्ठिमं परिणिबुडे ।
उवसग्गे णियमित्ता आमोक्खाए परिव्वएज्जासि।। (सू०१, ३ (३) : २१)
दृष्टिमान् शान्त मुनि सुन्दर धर्म को जानकर उपसर्गों को जीतकर मोक्ष-प्राप्ति पर्यन्त संयम में उद्यत रहे।
३. स्नेह-पाश
१. अहिमे सुह मा संगा भिक्खूणं जे दुरुत्तरा।
जत्थ एगे विसीयंति ण चयंति जवित्तए।। (सू० १, (३) २ : १)
बंधु-बांधवों के स्नेह रूप उपसर्ग बड़े सूक्ष्म होते हैं। ये अनुकूल परीषह साधु * पुरुषों द्वारा भी दुर्लध्य होते हैं। ऐसे सूक्ष्म-अनुकूल परीषहों के उपस्थित होने पर कई
खेदखिन्न हो जाते हैं और संयमी जीवन के निर्वाह में समर्थ नहीं रहते। २. वत्थगंधमलंकारं इत्थीओ सयणाणि य ।
भुंजाहिमाई भोगाइं आउसो ! पूजयामु तं ।। (सू० १, (३) २ : १७)
“हे आयुष्मान् ! वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्रियाँ और शय्या इन भोगों को आप भोगें। हम आपकी पूजा करते हैं। ३. जो तुमे णियमो चिण्णो भिक्खुभावम्मि सुव्वया।
अगारमावसंतस्स सव्वो संविज्जए तहा।।(सू० १, (३) २ : १८)
"हे सुन्दर व्रत वाले साधु ! आपने प्रवज्वा के समय जिन महाव्रत अदि रूप नियमों का पालन किया है, वे सब गृहवास करने पर भी उसी तरह बने रहेंगे। .. ४. चिरं दूइज्जमाणस्स दोसो दाणिं कुओ तव ?
इच्चेव णं णिमंतेंति णीवारेण व सूयरं ।। (सू० १, (३) २ : १६)