SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४. उपसर्ग और समाधि ११. आयदंडसमायारा मिच्छासंठियभावणा । हरिसप्पओसमावण्णा केई लूसंतिऽणारिया । । ( सू० १, ३ (१) : १४) कई अनार्य पुरुष अपनी आत्मा को दंड का भागी बनाते हुए मिथ्यात्व की भावना में सुस्थित हो राग-द्वेष पूर्वक साधु को पीड़ा पहुँचाते हैं। १२. अप्पेगे पलियंतंसि चारो चोरो त्ति सुव्वयं । बंधंति भिक्खुयं बाला कसायवसणेहि य ।। (सू० १, ३ (१) : १५) कई अज्ञानी पुरुष, पर्यटन करते हुए सुव्रती साधु को यह 'चर है', 'चोर है' ऐसा हुए रस्सी आदि से बाँधते हैं और कटु वचन से पीड़ित करते हैं। कहते १३. अप्पेगे पडिभासंति पाडिपंथियमागया । पडियारगया एए जे एए एवं जीविणो ।। २६५ (सू० १, ३ (१) : १) कई संतों के प्रति द्वेष को प्राप्त मनुष्य साधु को देखकर कहते हैं कि भिक्षा मांगकर इस तरह जीवन-निर्वाह करनेवाले ये लोग अपने पूर्व कृत पाप का फल भोग रहे हैं। १४. तत्थ दंडेण संवीते मुट्ठिणा अदु फलेण वा । णाईणं सरई बाले इत्थी वा कुद्धगामिणी ।। (सू० १, ३ (१) : १६) अनार्य देश में अनार्य पुरुष द्वारा लाठी, मुक्का अथवा फलक के द्वारा पीटा जाता हुआ मन्दगति पुरुष उसी प्रकार अपने बन्धु बान्धवों को स्मरण करता है, जिस तरह क्रोधवश घर से निकलकर भागी हुई स्त्री । १५. एए भो कसिणा फासा फर्रुसा दुरहियासया । हत्थी वा सरसंवीता कीवावसगा गया गिहं । । (सू० १, ३ (१) : १७) शिष्यो ! पूर्वोक्त सभी परीषह कष्टदायी और दुःसह हैं। वाणों से प्रहार के घायल हुए हाथी की तरह कायर पुरुष इनसे घबराकर फिर गृहवास में चला जाता है। १६. जहा संगामकालम्मि पिट्ठओ भीरु वेहइ | वलयं गहणं णूमं को जाणइ पराजयं । । (सू० १, ३ (३) : १) जैसे युद्ध के समय कायर पुरुष, यह शंका करता हुआ कि न जाने किसकी विजय होगी, पीछे की ओर ताकता है और गड्ढा, गहन और छिपा हुआ स्थान देखता है। १७. एवं तु समणा एगे अबलं णच्चाण अप्पगं । अणागयं भयं दिस्स अवकप्पंति मं सुयं । । (सू० १, ३ (३) : ३)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy