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महावीर वाणी
५. पुढे गिम्हाहितावेणं विमणे सुपिवासिए।
तत्थ मंदा विसीयंति मच्छा अप्पोदए जहा।। (सू० १, ३ (१) : ५)
ग्रीष्म ऋतु में अतिताप से पीड़ित होने पर जब अत्यन्त तृषा का अनुभव होता है उस समय अल्प पराक्रमी पुरुष उदास होकर उसी तरह विषाद को प्राप्त होते हैं, जैसे थोड़े जल में मछलियाँ। ६. समया दत्तेसणा दुक्खं जायणा दुप्पणोल्लिया।
कम्मंता दुभगा चेव इच्चाहंसु पुढोजणा।। (सू० १, ३ (१) : ६)
भिक्षु-जीवन में दी हुई वस्तु को ही लेना-यह दुःख सदा रहता है। याचना का परीषह दुःसह होता है। साधारण मनुष्य कहते हैं कि ये भिक्षु कर्म का फल भोग रहे हैं और भाग्यहीन हैं। ७. एए सद्दे अचायंता गामेसु णगरेसु वा।
तत्थ मंदा विसीयंति संगामम्मि व भीरुणो।। (सू० १, ३ (१) : ७)
ग्रामों में या नगरों में कहे जाते हुए इन आक्रोशपूर्ण शब्दों को सहन कर सकने में असमर्थ मंदगति जीव उसी प्रकार विषाद करते हैं, जिस तरह भीरु मनुष्य संग्राम में। ८. अप्पेगे खुज्झियं भिक्खु सुणी डंसइ लूसए।
तत्थ मंदा विसीयंति ते उपुट्ठा व पाणिणो।। (सू० १, ३ (पा : ८)
भिक्षा के लिए निकले हुए क्षुधित साधु को जब कोई क्रूर प्राणी-कुत्ता आदि-काटता है तो उस समय मंदगति पुरुष उसी तरह विषाद को प्राप्त होता है, जिस तरह अग्नि से स्पर्श किए हुए प्राणी।
६. पुट्ठो य दंसमसगेहिं तणफासमचाइया। __ण मे दिढे परे लोए किं परं मरणं सिया ? (सू० १, ३ (१) : १२)
दंश और मशकों से काटा जाकर तथा तृण की शय्या के रूक्ष स्पर्श को सहन कर सकने में असमर्थ मंदगति पुरुष यह भी सोचने लगता कि मैंने परलोक तो प्रत्यक्ष नहीं देखा है, परन्तु इस कष्ट से मरण तो प्रत्यक्ष दिखाई देता है । १०. संतत्ता कंसलोएणं बंभचेरपराइया।
तत्थ मंदा विसीयंति मच्छापविट्ठा व केयणे।। (सू० १, ३ (१) : १३)
केशलोंच से पीड़ित और ब्रह्मचर्य पालन में हारे हुए मंदगति पुरुष उसी तरह विषाद का अनुभव करते हैं जिस तरह जाल में फँसी हुई मछली।