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३४. उपसर्ग और समाधि
२२. दंसण परीषह २२. नत्थि नूणं परे लोए इड्ढी वावि तवस्सिणो।
अदुवा वंचिओ मि त्ति इइ भिक्खू न चिंतइ।। (उ० २ : ४४) अभू जिणा अस्थि जिणा अदुवावि भविस्सई। मुसं ते एवमाहंसु इइ भिक्खू न चिंतए।। (उ० २ : ४५)
'निश्चय ही परलोक नहीं है, तपस्वी की ऋद्धि नहीं है अथवा मैं ठगा गया हूँ'-भिक्षु ऐसा चिंतन न करे। 'जिन हुए थे, जिन हैं और जिन होंगे-ऐसा जो कहते हैं, वे झूठ बोलते है-भिक्षु ऐसा चिंतन न करे।
१. उपसर्ग और कायरता १. सूरं मण्णइ अप्पाणं जाव जेयं ण पस्सई।
जुज्झंतं दढधम्माणं सिसुपालो व महारहं।। (सू० १, ३ (१) : १)
कायर मनुष्य भी जब तक विजेता पुरुष को नहीं देखता तब तक अपने को शूर मानता है, परन्तु वास्तविक संग्राम के समय वह उसी तरह क्षोभ को प्राप्त होता है जिस तरह युद्ध में प्रवृत्त दृढ़धर्मी महारथी कृष्ण को देखकर शिशुपाल हुआ था | २. पापया सूरा रणसीसे संगामम्मि उवट्ठिए।
माया पुत्तं ण जाणाइ जेएण परिविच्छए।। (सू० १, ३ (१) : २)
अपने को शूर माननेवाला पुरुष संग्राम के अग्रभाग में चला तो जाता है परन्तु जब युद्ध छिड़ जाता है और ऐसी घबराहट मचती है कि माता भी अपनी गोद से गिरते हुए पुत्र की सुध न रख सके तब विजेता के प्रहार से क्षत-विक्षत वह अल्प पराक्रमी पुरुष दीन बन जाता है। ३. एवं सेहे वि अप्पुढे भिक्खुचरिया-अकोविए।
सूरं मण्णइ अप्पाणं जाव लूहं ण सेवए ।। (सू० १, ३ (१) : ३)
जैसे कायर पुरुष जब तक वीरों से घायल नहीं किया जाता तभी तक शूर होता है, इसी तरह भिक्षाचर्या में अनिपुण तथा परीषहों के द्वारा अस्पर्शित अभिनव प्रव्रजित साधु भी तभी तक अपने को वीर मानता है जब तक रूक्ष संयम का सेवन नहीं करता। ४. जया हेमंतमासम्मि सीयं फुसइ सवायगं|
तत्थ मंदा विसीयंति रज्जहीणा व खत्तीया।। (सू० १, ३ (१) : ४)
जब हेमंत ऋतु के महीने में शीत सब अंगों को स्पर्श करता है उस समय मन्द जीव उसी तरह का अनुभव करते हैं, जिस तरह राज्य-भ्रष्ट क्षत्रिय ।