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________________ २६२ महावीर वाणी उसे सम-भावपूर्वक सहन करे । आत्मगवेषी भिक्षु चिकित्सा की अनुमोदना न करे। समाधिपूर्वक रहे । श्रमण का श्रमणत्व इसी में है कि वह चिकित्सा न करे और न करावे । १६. सत्कार-पुरस्कार परीषह १६. अभिवायणमब्भुट्ठाणं सामी कुज्जा निमतणं । जे ताइं पढिसेवंति न तेसिं पीहए मुणी ।। अणुक्कसाई अप्पिच्छे अन्नाएसी अलोलुए। रसेसु नाणुगिज्झेज्जा नाणुतप्पेज्ज पन्नवं । । (उ०२ : ३८-३९) जो राजा आदि के द्वारा किए गए अभिवादन, सत्कार अथवा निमंत्रण का सेवन करते हैं, उनकी इच्छा न करे - उन्हें धन्य न माने। अल्प कषायवाला, अल्प इच्छावाला, अज्ञात कुलों से भिक्षा लेनेवाला और अलोलुप भिक्षु रसों में गृद्ध न हो। प्रज्ञावान् भिक्षु दूसरों को सम्मानित देखकर अनुताप न करे। २०. प्रज्ञा परीषह २०. से नूणं मए पुव्वं कम्माणाणफला कडा । जेणाहं नाभिजाणामि पुट्ठो केइ कण्हुई ।। अह पच्छा उइज्जति कम्माणाणफला कडा । एवमस्सासि अप्पाणं नच्चा कम्मविवागयं । । ' (उ०२ : ४०-४१) 'कहीं पर किसी के द्वारा पूछे जाने पर जो मैं उसका उत्तर नहीं जानता - यह निश्चय ही पूर्व में मैंने जो अज्ञान फलवाले कर्म किये हैं, उन्हीं का फल है। अज्ञान फल के देनेवाले कृत कर्मों का फल बाद में उदय में आता है' - भिक्षु कर्म के विपाक को जानकर अपनी आत्मा को इसी तरह आश्वासन दे । २१. अज्ञान परीषह २१. निरट्ठगम्मि विरओ मेहुणाओ सुसंवुडो । जो सक्खं नाभिजाणामि धम्मंण कल्ला पावगं । । । ( उ०२ : ४२ ) 'मैंने निरर्थक ही मैथुन आदि से निवृत्ति ली और इन्द्रियों को संवृत किया है,, जो छद्मस्यभाव को दूर कर साक्षात् कल्याण अथवा पापकारी धर्म को नहीं जान सकता' - भिक्षु ऐसा विचार कभी भी न करे । १. प्रज्ञा परीषह दो प्रकार से होता है-प्रज्ञा के अपकर्ष से और प्रज्ञा के उत्कर्ष (गर्व) से। यह वर्णन प्रज्ञा के अपकर्ष के विषय में है। प्रज्ञा के उत्कर्ष में गर्व न करना यह बात भी उपलक्षण से समझ लेना चाहिए ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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