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महावीर वाणी
उसे सम-भावपूर्वक सहन करे । आत्मगवेषी भिक्षु चिकित्सा की अनुमोदना न करे। समाधिपूर्वक रहे । श्रमण का श्रमणत्व इसी में है कि वह चिकित्सा न करे और न करावे ।
१६. सत्कार-पुरस्कार परीषह
१६. अभिवायणमब्भुट्ठाणं सामी कुज्जा निमतणं । जे ताइं पढिसेवंति न तेसिं पीहए मुणी ।। अणुक्कसाई अप्पिच्छे अन्नाएसी अलोलुए। रसेसु नाणुगिज्झेज्जा नाणुतप्पेज्ज पन्नवं । ।
(उ०२ : ३८-३९)
जो राजा आदि के द्वारा किए गए अभिवादन, सत्कार अथवा निमंत्रण का सेवन करते हैं, उनकी इच्छा न करे - उन्हें धन्य न माने। अल्प कषायवाला, अल्प इच्छावाला, अज्ञात कुलों से भिक्षा लेनेवाला और अलोलुप भिक्षु रसों में गृद्ध न हो। प्रज्ञावान् भिक्षु दूसरों को सम्मानित देखकर अनुताप न करे।
२०. प्रज्ञा परीषह
२०. से नूणं मए पुव्वं कम्माणाणफला कडा । जेणाहं नाभिजाणामि पुट्ठो केइ कण्हुई ।। अह पच्छा उइज्जति कम्माणाणफला कडा । एवमस्सासि अप्पाणं नच्चा कम्मविवागयं । । '
(उ०२ :
४०-४१)
'कहीं पर किसी के द्वारा पूछे जाने पर जो मैं उसका उत्तर नहीं जानता - यह निश्चय ही पूर्व में मैंने जो अज्ञान फलवाले कर्म किये हैं, उन्हीं का फल है। अज्ञान फल के देनेवाले कृत कर्मों का फल बाद में उदय में आता है' - भिक्षु कर्म के विपाक को जानकर अपनी आत्मा को इसी तरह आश्वासन दे ।
२१. अज्ञान परीषह
२१. निरट्ठगम्मि विरओ
मेहुणाओ सुसंवुडो । जो सक्खं नाभिजाणामि धम्मंण कल्ला पावगं । ।
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( उ०२ : ४२ )
'मैंने निरर्थक ही मैथुन आदि से निवृत्ति ली और इन्द्रियों को संवृत किया है,, जो छद्मस्यभाव को दूर कर साक्षात् कल्याण अथवा पापकारी धर्म को नहीं जान सकता' - भिक्षु ऐसा विचार कभी भी न करे ।
१. प्रज्ञा परीषह दो प्रकार से होता है-प्रज्ञा के अपकर्ष से और प्रज्ञा के उत्कर्ष (गर्व) से। यह वर्णन प्रज्ञा के अपकर्ष के विषय में है। प्रज्ञा के उत्कर्ष में गर्व न करना यह बात भी उपलक्षण से समझ लेना चाहिए ।