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३४. उपसर्ग और समाधि
वीर पुरुष धर्म उत्पन्न अरुचि भाव को सहन नहीं करता और न असंयम में उत्पन्न रुचि भाव को सहन करता है। वीर साधक जिस तरह धर्म के प्रति उदासीन वृत्तिवाला नहीं होता, उसी तरह वह अधर्म के प्रति रागवृत्तिवाला भी नहीं होता।
हिंसादि से विरत, निरारम्भी, उपशांत और आत्मरक्षक मुनि, अरति-संयम-के प्रति अरुचि भाव को हटाकर धर्मरूपी उद्यान में विचरे-रमण-करे।
१६. स्त्री परीषह १६. संगो एस मणुस्साणं जाओ लोगंमि इत्थिओ।
जस्स एया परिन्नाया सुकडं तस्स सामण्णं ।। एवमादाय मेहावी पंकभूया उ इथिओ। नो ताहिं विणिहन्नेज्जा चरेज्जत्तगवेसए।। (उ० २ : १६-१७)
लोक में जो स्त्रियाँ हैं, वे मनुष्यों के लिए लेप हैं-जिसे यह ज्ञात है उसका श्रामण्य सफल है। स्त्रियाँ ब्रह्मचारी के लिए पंक के सदृश हैं, यह जानकर मेधावी उनसे अपने संयम का घात न होने दे। वह आत्मा की गवेषणा करता हुआ विचरे। . .
१७. निषीधिका परिषह १४. सुसाणे सुन्नगारे वा रुक्ख-मूले व एगओ।
अकुक्कुओ निसीएज्जा न य वित्तासए परं ।। तत्थ से चिट्ठमाणस्स उवसग्गाभिधारए। संकाभोओ न गच्छेज्जा, उद्वित्ता अन्नमासणं।। (उ० २ : २० २१)
एकाकी-राग-द्वेषरहित-मुनि चंचलता को छोड़कर श्मशान, शून्यगृह अथवा वृक्ष के मूल में बैठे। दूसरे को संत्रस्त न करे। वहाँ बैई हुए उसे उपसर्ग हो तो वह समभाव से सहन करे, किन्तु अनिष्ट की आशंका से भयभीत हो वहां से उठ कर अन्य स्थान पर न जाय।
१८. रोग परीषह १८. नच्चा उप्पइयं दुक्खं वेयणाए दुहट्टिए।
अदीणो थावए पन्नं पुट्ठो तत्थहियासए।। तेगिच्छं नाभिनन्देज्जा संचिक्खत्तगवेसए।
एवं खु तस्स सामण्णं जं न कुज्जा न कारवे ।। (उ० २ : ३२-३३) __ रोग को उत्पन्न देखकर उसकी वेदना से दुःखात भिक्षु अदीनभाव से 'ये मेरे ही कर्मों का फल है'-ऐसी प्रज्ञा में अपने को स्थिर करे। रोग द्वारा आक्रांत होने पर