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________________ २६० महावीर वाणी गोयरग्गपविट्ठस्स पाणी नो सुप्पसारए। सेओ अगारवासु त्ति इइ भिक्खू न चिंतए।। (उ० २ : २८-२६) हे शिष्य ! घररहित भिक्षु के पास सब कुछ माँगा हुआ होता है। उसके पास कुछ भी अयाचित नहीं होता। निश्चय ही नित्य की याचना दुष्कर है। भिक्षाचर्या के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट भिक्षु के लिए हाथ पसारना सहज नहीं होता, इससे 'गृहवास ही अच्छा है'-भिक्षु ऐसा चिंतन न करे। १३. अलाभ परीषह १३. परेसु घासमेसेज्जा भोयणे परिणिट्ठिए। लद्धे पिण्डे अलद्धे वा नाणुतप्पेज्ज संजए।। अज्जेवाहं न लब्भामि अवि लाभो सुए सिया। जो एवं पडिसंविखे अलाभो तं न तज्जए।। (उ० २ : ३०-३१) गृहस्थों के घर भोजन तैयार हो जाने पर भिक्षु आहार की गवेषणा करे। आहार के मिलने या न मिलने पर विवेकी भिक्षु हर्ष-शोक न करे। 'आज मुझे नहीं मिला तो क्या ? कल मिलेगा'-जो भिक्षु इस प्रकार विचार करता है, उसे अलाभ परीषह कष्ट नहीं देता। १४. अचेल परीषह १४. परिजुण्णेहि वत्थेहिं होक्खामि त्ति अचेलए। अहुवा सचेलए होक्खं इइ भिक्खू न चिंतए।। एगयाऽचेलए होइ सचेले यावि एगया। एयं धम्महियं नच्चा नाणी नो परिदेवए।। (उ० २ : १२-१३) जीर्ण वस्त्रों के कारण मैं अचेलक हो जाऊँगा अथवा मैं वस्त्र-सहित सचेलक बनूँगा-भिक्षु ऐसा चिंतन-हर्ष-शोक-न करे। भिक्षु एकदा-कभी-अचेलक हो जाता है और कभी सचेलक। इन दोनों अवस्थाओं को धर्म में हितकारी जानकर ज्ञानी मुनि चिंता न करे-दीन न बने। १५. अरति परीषड १५. नारतिं सहते वीरे वोरे णो सहते रतिं। जम्हा अविमणे वीरे तम्हा वीरे न रज्जति।। (आ० १,२ (६) : १६०) अरई पिट्ठओ किच्चा विरए आयरक्खिए। धम्मारामे निररारम्भे उवसन्ते मुणी चरे।। (उ० २ : १५)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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