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३४. उपसर्ग और समाधि
६. जल्ल परीषह
६. किलिन्नगाए मेहावी पंकेण व रएण वा । घिसु वा परितावेण सायं नो परिदेवए । । वेएज्ज निज्जरापेही आरियं धम्मऽणुत्तरं । जाव सरीरभेउ त्ति जल्लं कारण धारए । ।
( उ०२ : ३६-३७)
ग्रीष्मादि में अति गर्मी से पसीने के कारण शरीर मैल अथवा रज से लिप्त हो जाय तो भी मेधावी साधु सुख के लिए दीनभाव न लावे । सर्वोत्तम आर्यधर्म को प्राप्त कर निर्जरा का अर्थी भिक्षु इस परीषह को सहन करे और शरीर छोड़ने तक मैल को शरीर पर समभावपूर्वक धारण करे।
१०. वध परीषह
१०. हओ न संजले भिक्खू मणं पि न पओसए । तितिक्खं परमं नच्चा भिक्खूधम्मं विचिंतए || समणं संजयं दंतं हणेज्जा कोइ कत्थई । नत्थि जीवस्स नासु त्ति एवं पेहेज्ज संजए । ।
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११. चर्या परीषह
७. एग एव चरे लाढे अभिभूय परीसहे । गामे वा नगरे वावि निगमे वा रायहाणिए । । असमाणो चरे भिक्खू नेव कुज्जा परिग्गहं । असंसत्तो गिहत्थेहिं अणिएओ परिव्वए । ।
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पीटे जाने पर साधु क्रोध न करे। मन में भी द्वेष न लावे । तितिक्षा परम धर्म है, ऐसा सोचकर वह भिक्षु धर्म का चिंतन करे। यदि कोई कहीं पर संयत दमेन्द्रिय श्रमण को पीटे तो वह संयमी भिक्षु इस प्रकार विचार करे कि जीव का कभी नाश नहीं होता ।
( उ० २ : २६ : २७)
१२. याचना परीषह
१२. दुक्करं खलु भो निच्चं अणगारस्स भिक्खुणो । सव्वं से जाइयं होइ नत्थि किंचि अजाइयं । ।
(उ०२ : १८-१६)
संयत भिक्षु परीषों को जीतकर गाँव में या नगर में, निगम या राजधानी में अकेला (राग-द्वेष रहित) विचरण करे। वह असाधारण रूप से विहार करे, परिग्रह न करे। गृहयुक्त मुनि गृहस्थों से असंसक्त (अनासक्त) रहता हुआ विचरण करे ।