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महावीर वाणी
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६. आक्रोश परीषह १२. अक्कोसेज्ज परो भिक्खुं न तेसिं पडिसंजले ।
सरिसो होइ बालाणं तम्हा भिक्खू न संजले ।। सोच्चाणं फरुसा भासा दारुणा गाम-कण्टगा। तुसिणीओ उवेहेज्जा न ताओ मणसीकरे।। (उ० २ : २४-२५)
दूसरों से दुर्वचन द्वारा आक्रोश (तिरस्कार) किए जाने पर भिक्षु उन पर कोप न करे। कोप करने से भिक्षु भी उस मूर्ख के समान हो जाता है; अतः भिक्षु प्रज्ज्वलित (कुपित) न हो।
भिक्षु कानों में काँटों के समान चुभनेवाली प्रतिकूल, दारुण ओर अत्यन्त रूक्ष भाषा को सुनने पर मौन रह उपेक्षा करे और उसे मन में स्थान न दे।
___७. दुःख शय्या परीषह ७. उच्चावयाहिं सेज्जाहिं तवस्सी भिक्खु थामवं ।
नाइवेलं विहन्नेज्जा पावदिट्ठी विहन्नई ।। पइरिक्कुवस्सयं लडु कल्लाणं अदु पावगं । किमेगरायं करिस्सइ एवं तत्थऽहियासए।। (उ० २ : २२-२३)
तपस्वी और प्राणवान् भिक्षु अच्छे-बुरे स्थान के मिलने पर उसे सह ले । समभावरूपी मर्यादा का उल्लंघन कर संयम का घात न करे। पापदृष्टि भिक्षु संयमरूपी मर्यादा का उल्लंघन कर देता है।
अच्छे हों या बुरे रिक्त उपाश्रय को पाकर भिक्षु यह विचार करता हुआ कि एक रात में यह मेरा क्या कर लेगा, उसे समभाव से सहन करे।
८. तृण-स्पर्श परीषह ८. अचेलगस्स लूहस्स संजयस्स तवस्सिणो। तणेसु सयमाणस्स हुज्जा गाय-विराहणा।। आयवस्स निवाएण अउला हवइ वेयणा। एवं नच्चा न सेवंति तंतुजं तण-तज्जिया।। (उ० २ : ३४-३५) ।
अचेलक-निर्वस्त्र और रूक्ष शरीर वाले संयत तपस्वी के घास पर सोने से गात्रविराधना-शरीर में व्यथा होती है। धूप पड़ने से अतुल वेदना होती है। यह जानकर भी तृण-स्पर्श से व्यथित मुनि वस्त्र का सेवन नहीं करते।